ग़ज़ल - दिल टूटा, तो वो भी अभी टुकड़ों में बँटा है



दिल टूटा, तो वो भी अभी टुकड़ों में बँटा है
इक शख्स मेरी ज़ात के अन्दर जो बसा है

इक शोर सा हर गोशा ए दिल में जो मचा है
शायद मेरे अन्दर कहीं कुछ टूट गया है

जिस में है महक तेरी, तेरा नाम लिखा है
हर एक क़दम पर वो निशाँ मुझ को मिला है

देता है हर इक लम्हा मुझे एक अज़ीअत
ऐ अजनबी, तू कौन है, क्या नाम तेरा है

लौटा मेरा माज़ी, तो कहाँ ढूँढेगा मुझ को
अब दिल को शब् ओ रोज़ ये धड़का सा लगा है

ये अम्र किसी एक के बस का तो नहीं था
तू भी है गुनहगार, तो मेरी भी ख़ता है

हर ज़र्ब में इक लय है, तो नग़मा है तड़प में
इस टीस में, इस दर्द में कुछ और मज़ा है

हिम्मत से समंदर में भी बन जाती हैं राहें
तदबीर से तक़दीर का लिक्खा भी टला है

ख़ामोशी ये मेरी, मेरा इक़रार नहीं है
शिकवे तो कई हैं, प् मेरा दहन सिला है

अब भी न अगर लौटा तो खो देगा मुझे वो
अब तक तो मेरा बाब ए तमन्ना भी खुला है

ये लय, ये रवानी, ये तजल्ली, ये हरारत
"मुमताज़" मेरी ज़ात में शो'ला सा जला है

गोशा ए दिल-दिल का कोना, अज़ीअत-यातना, माज़ी-भूतकाल, शब् ओ रोज़-दिन रात, अम्र-काम, ज़र्ब-चोट, शिकवे-शिकायतें, दहन-मुंह, बाब ए तमन्ना-इच्छा का दरवाज़ा, रवानी-बहाव, तजल्ली-झिलमिलाहट, हरारत-गर्मी
 

Comments

Popular posts from this blog

ज़ालिम के दिल को भी शाद नहीं करते