ग़ज़ल - हुआ सदाक़तों का ख़ूँ, जुनून पर निखार है
ये एक बहुत पुरानी ग़ज़ल है, लेकिन आज के हालात पर भी
मौज़ूँ है, मुलाहिज़ा फ़रमाइए
हुआ सदाक़तों का ख़ूँ, जुनून पर निखार है
अदील रूसियाह है, खुला सितम शआर है
अभी तो एशिया में तेल
के कई महाज़ हैं
अब इसके बाद देखें, अगला कौन सा शिकार है
फिर आ पड़ा है वक़्त, फिर मुक़ाबला है कुफ़्र से
उठो कमर को बांध लो ये
क़ौम की पुकार है
बना फिरे वो बंदा-ए-अना
ख़ुदा जहान का
ग़ुरूर की ये इंतेहा, जहान दरकिनार हैं
खड़ा है सर पे वक़्त-ए-अद्ल
और ये इशरत-ए-जहाँ
ये कैसी गहरी नींद है, ये कौन सा ख़ुमार है
वो नाज़िश-ए-जहाँ भी होगा
एक दिन ज़मीं तले
कि पस्तियों का सिलसिला
बलन्दियों के पार है
सदाक़तों का सच्चाईयों
का, अदील – न्यायाधीश, रूसियाह – काले मुंह
वाला, सितम शआर – सितम करना जिसकी आदत हो, महाज़ – मोर्चा, अना – अहं, वक़्त-ए-अद्ल – इंसाफ़ का समय, इशरत-ए-जहाँ – दुनिया के ऐश, नाज़िश-ए-जहाँ
– घमंडी, बददिमाग
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