ग़ज़ल - रतजगों से ख्व़ाब तक
कितना लम्बा फ़ासला है रतजगों से ख्व़ाब तक
एक वीराना बिछा है रतजगों से ख्व़ाब तक
मसलेहत तो बेख़ता था, इश्क़ तो मासूम था
बाग़ी लम्हों की ख़ता है रतजगों से ख्व़ाब तक
ज़ुल्मतें ही ज़ुल्मतें हैं इस सराब ए ज़ात में
क़ाफ़िला हर इक लुटा है रतजगों से ख्व़ाब तक
खो गई हर एक आहट, सो गई हर इक उम्मीद
सिर्फ़ सन्नाटा बचा है रतजगों से ख्व़ाब तक
वहशतों की आज़माइश, आरज़ूओं का सराब
लम्हा लम्हा जागता है रतजगों से ख्व़ाब तक
दर्द से एहसास होता है कि ज़िंदा हूँ अभी
बेक़रारी का मज़ा है रतजगों से ख्व़ाब तक
दिल से नज़रों तक, नज़र से ज़ुल्मतों के दश्त तक
दिल उसी को ढूँढता है रतजगों से ख्व़ाब तक
दिल में धड़कन भी नहीं, अब दर्द भी ख़ामोश है
ख़ामुशी का सिलसिला
है रतजगों से ख्व़ाब तक
किरची किरची ज़ात बिखरी, रेज़ा रेज़ा है वजूद
टूट कर सब रह गया है रतजगों से ख्व़ाब तक
जंग भी "मुमताज़" जज़्बों की, शिकस्त और जीत भी
जाने क्या क्या हो गया है रतजगों से ख्व़ाब तक
मसलेहत-दुनियादारी, ज़ुल्मतें-अँधेरे, सराब ए ज़ात-अपने
अन्दर की मृगतृष्णा, वहशतों
की- घबराहट की, आरज़ूओं
का सराब-इच्छाओं की मृगतृष्णा, लम्हा-पल, किरची किरची- टुकड़े टुकड़े, रेज़ा रेज़ा-टुकड़े टुकड़े, शिकस्त-हार
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