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नूर अपना मेरी हस्ती में ज़रा हल कर दे

नूर   अपना   मेरी   हस्ती   में   ज़रा   हल   कर   दे इक   ज़रा   हाथ   लगा   दे , मुझे   संदल   कर   दे ज़ेर-ओ-बम   राह   के   चलने   नहीं   देते   मुझ   को तू   जो   चाहे   तो   हर   इक   राह   को   समतल   कर   दे यूँ   तो   हर   वक़्त   चुभा   करती   है   इक   याद   मुझे शाम   आए   तो   मुझे   और   भी   बेकल   कर   दे तेरे   शायान-ए-ख़ुदाई   हों   अताएँ   तेरी सारी   महरूमी   को   यारब   तू   मुकफ़्फ़ल   कर   दे ज़ुल्म   की , यास   की , बदबख्ती की , महरूमी   की " सारी   दुनिया   को   मेरी   आँखों   से   ओझल   कर   दे" अब   न   "मुमताज़" अधूरी   रहे   हसरत   कोई मेरे   मालिक   मेरी   ख़ुशियों को   मुकम्मल   कर   दे noor apna meri hasti meN zara hal kar de ik zara haath laga de, mujhe sandal kar de zer o bam raah ke chalne nahiN dete mujh ko tu jo chaahe to har ik raah ko samtal kar de yuN to har waqt chubha karti hai ik yaad mujhe shaam aae to mujhe aur bhi bekal kar de tere shaayan e khudaai hoN ataaeN teri s

हर कहीं है अक्स तेरा हर कली में तेरी बू

हर कहीं है अक्स तेरा हर कली में तेरी बू इस ज़मीं से उस ज़माँ तक हर कहीं बस तू ही तू हूँ गुनह सर ता पा लेकिन फिर भी ऐ मेरे ग़फ़ूर मासियत है मेरी आदत , और रहमत तेरी ख़ू कायनातों के भँवर में फिर रहे हैं बेक़रार जाने ले जाए कहाँ अब हम को तेरी आरज़ू ऐ मेरे मालिक , तेरी रहमत हमें दरकार है भर गया है इस ज़मीं पर अब गुनाहों का सुबू ज़र्रे ज़र्रे पर अयाँ हैं नक़्श हर तख़्लीक़ के अक़्ल - ए - आवारा फिरे है हैराँ हैराँ , कू ब कू तेरे दर तक आ के भी दामन रहा ख़ाली मेरा तेरी रहमत को सदा देती है मेरी आरज़ू या इलाही , हम्द तेरी मैं करूँ कैसे रक़म चाहिए दिल की तहारत , उँगलियाँ हों बावज़ू ढाँप ले मेरे गुनाहों को तू अपने साए से रक्खी है " मुमताज़ " की तू ने हमेशा आबरू   har kahiN hai aks tera har kali meN teri bu is zameeN se us zamaaN tak har kahiN bas tu hi tu huN gunah sar taa paa lekin phir bhi aye mere ghafoor maasiyat hai t

जहाँ सजदा रेज़ है ज़िन्दगी जहाँ कायनात निसार है

जहाँ सजदा रेज़ है ज़िन्दगी जहाँ कायनात निसार है जहाँ हर तरफ हैं तजल्लियाँ , मेरे मुस्तफ़ा का दयार है कहाँ आ गई मेरी बंदगी , है ये कैसा आलम-ए-बेख़ुदी न तो होश है न वजूद है ये बलन्दियों का ख़ुमार है तेरी इक निगाह-ए-करम उठी तो मेरी हयात सँवर गई तेरा इल्तेफ़ात न हो अगर तो क़दम क़दम मेरी हार है दर-ए-मुस्तफ़ा से गुज़र गई तो नसीम-ए-सुबह महक उठी चली छू के गुंबद-ए-सब्ज़ को तो किरन किरन पे निखार है जो बरस गईं मेरी रूह पर वो थीं नूर-ए-मीम की बारिशें जो तजल्लियों से चमक उठा वो नज़र का आईनाज़ार है नहीं दिल में इश्क़ का शायबा तो हैं लाखों सजदे भी रायगाँ तुझे अपने सजदों पे ज़ुअम है मुझे आशिक़ी का ख़ुमार है मेरे शौक़ को , मेरे ज़ौक़ को हुई जब से नाज़ाँ तलब तेरी मुझे जुस्तजू तेरे दर की है , मेरी जुस्तजू में बहार है جہاں سجدہ ریز ہے زندگی جہاں کائنات نثار ہے جہاں ہر طرف ہیں تجلیاں مرے مصطفےٰ کا دیار ہے کہاں آ گئی مری بندگی ہے یہ کیسا عالمِ بےخودی نہ تو ہوش ہے، نہ وجود ہے، یہ بلندیوں کا خمار ہے تری اک نگاہِ کرم اٹھی تو مری حیات سنور گئی ترا التفات نہ ہو اگر تو قدم قدم مری

कभी तो इन्केशाफ़ हो, सराब है, कि तूर है

कभी तो इन्केशाफ़ हो , सराब है , कि तूर है फ़ज़ा ए दिल में आज कल बसा हुआ जो नूर है ये मसलेहत की साज़िशें , नसीब की इनायतें   हयात की नवाज़िशें , जो पास है , वो दूर है दलील है कि आरज़ू का बाग़ है हरा अभी जो दिल के संगलाख़ से गुलाब का ज़हूर है मिली है रौशनी , तो फिर बढ़ेगी ताब ए दीद भी अभी से दीद का कहाँ निगाह को शऊर है जो आरज़ू है जुर्म तो हमें भी ऐतराफ़ है ख़ता है तो ख़ता सही , जो है , तो फिर हुज़ूर , है लिए चली ये बेख़ुदी हमें तो आसमान पर निगाह ओ दिल हैं पुरफुसूं , ये इश्क़ का सुरूर है छुपाए लाख राज़ तू , सिले हों तेरे लब मगर तेरी निगाह कह गई , कि कुछ न कुछ ज़रूर है अगर मेरी वफ़ाओं पर तू "ना ज़ाँ " है , तो जान ए जाँ मुझे भी ऐतराफ़ है , कि तू मेरा ग़ुरूर है   kabhi to inkeshaaf ho, saraab hai ki toor hai  fazaa-e-dil meN aaj kal basaa hua jo noor hai  ye maslehat kee saazisheN, naseeb kee inaayateN  hayaat kee nawaazisheN, jo paas hai wo door hai  daleel hai ki aarzoo ka baagh hai hara abhi  jo dil ke sanglaakh se gul

कौन-ओ-मकाँ के असरारों से क्या लेना

कौन - ओ - मकाँ के असरारों से क्या लेना भूके शिकम को अबरारों से क्या लेना जिस का हर गिर्दाब किया करता है तवाफ़ झूमती कश्ती को धारों से क्या लेना भूक की डायन राजमहल तक क्यूँ जाए राहबरों को   लाचारों   से   क्या   लेना अपने अंधेरों में ख़ुद को खो बैठे हैं   अंधे दिलों को अनवारों से क्या लेना धूप का साया ले के सफ़र पे निकली हूँ मेरी थकन को अशजारों से क्या लेना हम घर से नालाँ , घर हम से रहता है सहन - ओ - मकाँ को बंजारों से क्या लेना यूँ भी तो जलते रहते हैं अलफ़ाज़ मेरे “मेरे क़लम को अंगारों से क्या लेना” हम तो हैं ' मुमताज़ ' सिपाही ख़ामा के हम को भला इन तलवारों से क्या लेना कौन - ओ - मकाँ = ब्रम्हांड , असरार = राज़ , शिकम = पेट , अबरार = पुजारी , गिर्दाब = भंवर , तवाफ़ = परिक्रमा , अनवार = रौशनियाँ , अश्जार = पेड़ , सहन - ओ - मकाँ = घर और आँगन , ख़ामा = क़लम کون   و   مکاں   کے   اسراروں   سے   کیا   لینا ب