जहाँ सजदा रेज़ है ज़िन्दगी जहाँ कायनात निसार है

जहाँ सजदा रेज़ है ज़िन्दगी जहाँ कायनात निसार है
जहाँ हर तरफ हैं तजल्लियाँ, मेरे मुस्तफ़ा का दयार है

कहाँ आ गई मेरी बंदगी, है ये कैसा आलम-ए-बेख़ुदी
न तो होश है न वजूद है ये बलन्दियों का ख़ुमार है

तेरी इक निगाह-ए-करम उठी तो मेरी हयात सँवर गई
तेरा इल्तेफ़ात न हो अगर तो क़दम क़दम मेरी हार है

दर-ए-मुस्तफ़ा से गुज़र गई तो नसीम-ए-सुबह महक उठी
चली छू के गुंबद-ए-सब्ज़ को तो किरन किरन पे निखार है

जो बरस गईं मेरी रूह पर वो थीं नूर-ए-मीम की बारिशें
जो तजल्लियों से चमक उठा वो नज़र का आईनाज़ार है

नहीं दिल में इश्क़ का शायबा तो हैं लाखों सजदे भी रायगाँ
तुझे अपने सजदों पे ज़ुअम है मुझे आशिक़ी का ख़ुमार है

मेरे शौक़ को, मेरे ज़ौक़ को हुई जब से नाज़ाँ तलब तेरी
मुझे जुस्तजू तेरे दर की है, मेरी जुस्तजू में बहार है


جہاں سجدہ ریز ہے زندگی جہاں کائنات نثار ہے
جہاں ہر طرف ہیں تجلیاں مرے مصطفےٰ کا دیار ہے

کہاں آ گئی مری بندگی ہے یہ کیسا عالمِ بےخودی
نہ تو ہوش ہے، نہ وجود ہے، یہ بلندیوں کا خمار ہے

تری اک نگاہِ کرم اٹھی تو مری حیات سنور گئی
ترا التفات نہ ہو اگر تو قدم قدم مری ہار ہے

درِ مصطفےٰ سے گذر گئی تو نسیمِ صبح مہک اٹھی
چلی چھو کے گنبدِ سبز کو تو کرن کرن پہ نکھار ہے

جو برس گئیں مری روح پر وہ تھیں نورِ میم کی بارشیں
جو تجلیوں سے چمک اٹھا وہ نظر  کا آئنہ زار ہے

نہیں دل میں عشق کا شائبہ تو ہیں لاکھوں سجدے بھی رائگاں
تجھے اپنے سجدوں پہ زعم ہے مجھے عاشقی کا خمار ہے

مرے شوق کو مرےذوق کو ہوئی جب سے نازاںؔ طلب تری
مجھے جستجو ترے در کی ہے مری جستجو میں بہار ہے

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