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जूनून सा है , कभी इन्क़ेलाब जैसा है

जूनून   सा   है , कभी   इन्क़ेलाब जैसा   है हर   इक   नज़ारा   रह - ए - दिल   का   ख़्वाब   जैसा   है मैं   इस   सराब   ए   तज़बज़ुब में   कब   तलक   भटकूँ तेरा   ये   लुत्फ़ - ओ - करम   भी   अज़ाब   जैसा   है लगी   है   अब्र   को   शायद   वो   मस्त   मस्त   नज़र जो   अब   के   बरसा   है   पानी , शराब   जैसा   है न   जाने   कैसे   उठे , कैसे , कब , कहाँ   टूटे ये   हस्त - ओ - बूद   का   आलम   हुबाब   जैसा   है ज़रा   सी   बात   पे   हलचल   सी   मचने   लगती   है ये   दिल   भी   क्या   है , किसी   सतह - ए - आब   जैसा   है मुझे   गुनाह - ए - मोहब्बत   का   ऐतराफ़   तो   है गुनाह   ये   भी   मगर   इक   सवाब   जैसा   है मेरे   सवाल   के   बदले   वो   यूँ   सवाल   करे कि   हर   सवाल   भी   गोया   जवाब   जैसा   है हर   एक   क़तरा   बड़ी   तशनगी   समेटे   है " ये   क्या   सितम   है   कि   दरिया   सराब   जैसा   है " न   कोई   रब्त , न   कुछ   सिलसिला   हवादिस   में सफ़र   हयात   का   " मुमताज़ " ख़्वाब   जैसा

मेरे वजूद को ग़म ज़िन्दगी का खा लेगा

मेरे   वजूद   को   ग़म   ज़िन्दगी   का   खा   लेगा तेरा   ख़याल   मुझे   कब   तलक   संभालेगा करुँगी   दफ़्न मैं   हसरत   को   दिल   की   तह   में   कहीं ये   आग   सीने   में   वो   भी   कहीं   दबा   लेगा कभी   तो   ख़ून   तमन्ना   का   रंग   लाएगा कभी   तो   जोश-ए-जुनूँ मंज़िलों   को   पा   लेगा मैं   मुन्तज़िर   तो हूँ , लेकिन   कभी   पता   तो   चले मेरा   नसीब   मुझे   और   कितना   टालेगा लडेगा   क्या   शब-ए-तारीक से   दिया , लेकिन गुज़रने   वाला   कोई   शमअ    तो   जला   लेगा ख़ज़ाना   ढूँढने   वाले   कभी   तो   ख़ुद   में   उतर समन्दरों   की   तहें   कब   तलक   खंगालेगा उलझना   चाहे   मेरे   दिल   की   आग   से   अक्सर " मैं   चूक   जाऊं   तो   वो   उंगलियाँ   जला   लेगा" कोई   जूनून   न   हसरत , बचा है   क्या मुझ   में   मुझे   वजूद   में   ' मुमताज़ ' कौन   ढालेगा mere wajood ko gham zindagi ka kha lega tera khayaal mujhe kab talak sambhaalega karungi dafn maiN hasrat ko dil ki tah meN kahiN ye aag seene

वही आवारगी होती, वही फिर बेख़ुदी होती

वही आवारगी होती , वही फिर बेख़ुदी होती नज़र की एक जुम्बिश से तमन्ना फिर नई होती कभी झुकतीं , कभी उठतीं , कभी इठला के लहरातीं मज़ा आता जो राहों में कहीं कुछ तो कजी होती सुलगते वाहमों के कितने ही दर बंद हो जाते कभी मेरी सुनी होती , कभी अपनी कही होती नहीं उतरा कोई दिल के अँधेरों में कभी वरना ग़ुरूर-ए-ज़ात की सारी हक़ीक़त खुल गई होती मेरी दुनिया न होती , वो तुम्हारा ही जहाँ होता कहीं तो कुछ ख़ुशी होती , कहीं तो दिलकशी होती हिसार-ए-ज़ात का हर गोशा गोशा जगमगा उठता जहाँ तक तेरा ग़म होता वहीं तक ज़िंदगी होती ज़मीन-ए-दिल के मौसम का बदलना भी ज़रूरी था कभी दिन तो कभी “ मुमताज़ ” कुछ तीरा शबी होती  

दिल तुम्हें ख़ुद ही बता देगा कि रग़बत क्या है

दिल तुम्हें ख़ुद ही बता देगा कि रग़बत क्या है पूछते क्या हो मेरी जान मोहब्बत क्या है है मयस्सर जिसे सब कुछ वो भला क्या समझे किसी मुफ़लिस से ये पूछो कि ज़रूरत क्या है कोई अरमाँ न रहा दिल में तो क्या देंगे जवाब पूछ बैठा जो ख़ुदा हम से कि हाजत क्या है हुस्न है , प्यार है , ईसार का इक दरिया है कोई समझा ही कहाँ है कि ये औरत क्या है दर ब दर बेचती फिरती है जो बाज़ारों में इक तवायफ़ से ज़रा पूछो कि अस्मत क्या है मेरा महबूब उठा रूठ के पहलू से मेरे कोई बतलाए कि अब और क़यामत क्या है कहकशाँ डाल दी क़दमों में ख़ुदा ने मेरे दर ब दर फिरने की “मुमताज़” को हाजत क्या है

ख़्वाब हैं आँखों में कुछ, दिल में धड़कता प्यार है

ख़्वाब   हैं   आँखों   में   कुछ , दिल   में   धड़कता   प्यार   है हाँ   हमारा   जुर्म   है   ये , हाँ   हमें   इक़रार   है मसलेहत   की   शर   पसंदी   किस   क़दर   ऐयार   है " देखिये   तो   फूल   है   छू   लीजिये   तो   ख़ार   है" रहबरान-ए-क़ौम    से   अब   कोई   तो   ये   सच   कहे इस   सदी   में   क़ौम   का   हर   आदमी   बेदार   है सुगबुगाहट   हो   रही   है   आजकल   बाज़ार   में मुफ़लिसी   की   हो   तिजारत   ये   शजर   फलदार   है सुर्ख़रू   है   फितनासाज़ी रूसियाह   है   इंतज़ाम मुल्क   की   बूढी   सियासत   इन   दिनों   बीमार   है हमलावर   रहती   हैं   अक्सर   नफ़्स   की   कमज़ोरियाँ जाने   कब   से   आदमीयत   बर   सर-ए-पैकार   है हो   गया   पिन्दार   ज़ख़्मी   खुल   गया   सारा   भरम क़ौम   को   जो   बेच   बैठा , क़ौम   का   सरदार   है हाँ   तुम्हीं   सब   से   भले   हो , जो   करो   वो   ठीक   है हैं   बुरे   "मुमताज़" हम   ही , हम   को   कब   इनकार   है