वही आवारगी होती, वही फिर बेख़ुदी होती
वही आवारगी होती, वही फिर बेख़ुदी होती
नज़र की एक जुम्बिश से तमन्ना फिर नई होती
कभी झुकतीं, कभी उठतीं, कभी इठला के
लहरातीं
मज़ा आता जो राहों में कहीं कुछ तो कजी होती
सुलगते वाहमों के कितने ही दर बंद हो जाते
कभी मेरी सुनी होती, कभी अपनी कही होती
नहीं उतरा कोई दिल के अँधेरों में कभी वरना
ग़ुरूर-ए-ज़ात की सारी हक़ीक़त खुल गई होती
मेरी दुनिया न होती, वो तुम्हारा ही जहाँ होता
कहीं तो कुछ ख़ुशी होती, कहीं तो दिलकशी होती
हिसार-ए-ज़ात का हर गोशा गोशा जगमगा उठता
जहाँ तक तेरा ग़म होता वहीं तक ज़िंदगी होती
ज़मीन-ए-दिल के मौसम का बदलना भी ज़रूरी था
कभी दिन तो कभी “मुमताज़” कुछ तीरा शबी होती
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