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नज़्म - गुजारिश

न जाने कितनी बातें तुम से कहना चाहती हूँ मैं न जाने कितने अंदेशे तुम्हारे दिल में भी होंगे तुम्हारी धड़कनों में छुप के रहना चाहती हूँ मैं तुम्हारी आँख में भी ख़्वाब अब तक तो यही होंगे मगर अब वक़्त बदला है , कहाँ वो रात दिन जानाँ हमारे दरमियाँ अब कितनी ही सदियों की दूरी है नई राहें , नए मंज़र , नया है ये सफ़र जानाँ तो हसरत को नया इक पैरहन देना ज़रूरी है अभी भी ज़ह्न पर माना तेरी चाहत का डेरा है हक़ीक़त है , तेरी यादें मुझे बेचैन करती हैं मोहब्बत की जगह लेकिन ख़ला है अब मेरे दिल में निगाहें तेरी राहों की तरफ़ जाने से डरती हैं ख़ुदी ने डाल रक्खे हैं मेरे जज़्बात पर ताले अना ने डाल रक्खी हैं तेरे पाओं में ज़ंजीरें मेरी साँसों की लय पर आज वहशत रक़्स करती है अभी जज़्बात बोझल हैं , अभी ज़ख़्मी हैं तहरीरें हक़ीक़त के दोराहे पर खड़े हैं आज हम जानाँ तुम्हारी राह वो है और मुझे इस सिम्त जाना है तुम्हारी राह में शायद बहारें रक़्स करती हों ख़िज़ाँ की वहशतों में हाँ मगर मेरा ठिकाना है तक़ाज़ा मस्लेहत का है , ख़ुशी से हम बिछड़ जाएँ न अब हम याद रक्खें और न इक दूजे को या

सीना ज़ख़्मी हो, बदन ख़ून में तर हो तो कहो

सीना ज़ख़्मी हो , बदन ख़ून में तर हो तो कहो जाँ लुटाने का तुम्हें शौक़ अगर हो तो कहो जज़्बा-ए-शो ’ ला फ़िशाँ , पा ब शरर हो तो कहो “ गर्मी-ए-ज़ौक़-ए-अमल क्या है , सफ़र हो तो कहो ” मानती हूँ कि ज़माने की ख़बर है तुम को ख़ाक उड़ाते हुए लम्हों की ख़बर हो तो कहो मेरे मोहसिन हो तो फिर सर को हथेली प रखो जंग में आए तो हो , सीना सिपर हो तो कहो सुबह तो हो भी चुकी है प शोआएँ हैं कहाँ इस सहर में भी दरख़्शाँ जो मेहेर हो तो कहो साथ चलने को चलो , सोच लो लेकिन दिल में कोई अंदेशा , कोई शक , कोई डर हो तो कहो फूटते पाँव के छालों से गिला क्या करना तपती राहों में कोई भी जो शजर हो तो कहो जाने इस राह में “ मुमताज़ ” कहाँ क्या होगा मौत से आँख मिलाने का हुनर हो तो कहो जज़्बा-ए-शो ’ ला फ़िशाँ – आग बरसाने वाला जज़्बा , पा ब शरर – अंगारों से भरे पाँव , गर्मी-ए-ज़ौक़-ए-अमल – कर्म करने की दिलचस्पी की गर्मी , सीना सिपर – सीने को ढाल बनाने वाला , शोआएँ – किरणें , सहर – सुबह , दरख़्शाँ – चमकता हुआ , मेहेर – सूरज , शजर – पेड़ ,  

होने का मुझे कोई तो एहसास दिला याद

होने का मुझे कोई तो एहसास दिला याद फिर मुझको दिखा आईना , फिर मुझको रुला याद फिर मैंने किया क़स्द तेरी राह का ऐ दोस्त कोई भी मुझे फ़ैसला अपना न रहा याद ये कर्ब , ये बेचैनी , ये वहशत , ये उम्मीदें बच कर मैं कहाँ तुझसे रहूँ , कुछ तो बता याद यूँ हम ने मिटा डाला है हर एक निशाँ अब अपनी ही तड़प याद , न तेरी ही अदा याद रोई है वफ़ा फूट के अपनी ही ख़ता पर जो तू ने कभी की थी वो आई है दुआ याद चेहरा तो शनासा है प बेगाना है दिल क्यूँ लगता है मेरा कौन तू , करने दे ज़रा याद इक लहर सी सीने में उठी , डूब गया दिल लगता है मेरे माज़ी ने फिर मुझको किया याद क्यूँ टूटा है “ मुमताज़ ” हमारा ये नशेमन तक़सीर तेरी याद न अपनी ही ख़ता याद

है गराँ एक इक सवाल हमें

है गराँ एक इक सवाल हमें सिर्फ वादों प अब न टाल हमें फ़ैसला कुछ तो ज़िंदगानी का इस कशाकश से अब निकाल हमें मार डालें न ग़म ज़माने के ऐ ग़म-ए-आशिक़ी संभाल हमें इस लिए गुम हैं हम भी माज़ी में रास आया कभी न हाल हमें यूँ बिखरते रहे हैं हम पैहम हर तबाही का है मलाल हमें सीख पाए न इक तसन्नोअ हम यूँ तो आते हैं सब कमाल हमें हम हैं गोया कि रास्ता कोई वक़्त करता है पायमाल हमें तसन्नोअ – बनावट

पछता रहे हैं काम से उस को निकाल के

पछता रहे हैं काम से उस को निकाल के खाएँगे कितने दिन यूँ ही अंडे उबाल के तिरसठ बरस की सिन में तमन्ना है हूर की जुम्मन मियाँ को शौक़ हुए हैं कमाल के पतली गली से जल्द खिसक लो तो ख़ैर है   रक्खा है क़र्ज़ख़्वाहों को वादों प टाल के मुश्टंडे चार हम ने बुला रक्खे हैं कि अब जूते बना के पहनेंगे आशिक़ की खाल के ख़ाविंद खट रहा है शब-ओ-रोज़ काम में बेगम मज़े उड़ाती है शौहर के माल के फिर भी न बदनज़र से बचा हुस्न कार का लटकन कई लगाए थे घोड़े की नाल के “ मुमताज़ ” राह-ए-इश्क़ की मजबूरियाँ न पूछ परखच्चे उड़ गए हैं मियाँ बाल बाल के

एक क़तआ

मेरी ज़िद मुझ को मेरा ज़ख़्म-ए-दिल सीने नहीं देती अना की आज़माइश अश्क भी पीने नहीं देती अजब आलम है , दिल का रेज़ा रेज़ा डूबा जाता है ये उलझन और ये बेचैनी मुझे जीने नहीं देती

ऐसे मरकज़ प है ख़ूँख़्वारी अब इन्सानों की

ऐसे मरकज़ प है ख़ूँख़्वारी अब इन्सानों की अब भला क्या है ज़रूरत यहाँ शैतानों की बेड़ियाँ चीख़ उठीं यूँ कि जुनूँ जाग उठा हिल गईं आज तो दीवारें भी ज़िंदानों की उन निगाहों की शरारत का ख़ुदा हाफ़िज़ है लूट लें झुक के ज़रा आबरू मैख़ानों की हम ने घबरा के जो आबाद किया है इन को आज रौनक़ है सिवा देख लो वीरानों की ख़ून से लिक्खी गई है ये मोहब्बत की किताब कितनी दिलचस्प इबारत है इन अफ़सानों की अपनी क़िस्मत का भरम रखने को हम तो “ मुमताज़ ” लाश काँधों पे लिए फिरते हैं अरमानों की