सीना ज़ख़्मी हो, बदन ख़ून में तर हो तो कहो
सीना ज़ख़्मी हो, बदन ख़ून में तर हो तो कहो
जाँ लुटाने का तुम्हें शौक़ अगर हो तो कहो
जज़्बा-ए-शो’ला फ़िशाँ, पा ब शरर हो तो कहो
“गर्मी-ए-ज़ौक़-ए-अमल क्या है, सफ़र हो तो कहो”
मानती हूँ कि ज़माने की ख़बर है तुम को
ख़ाक उड़ाते हुए लम्हों की ख़बर हो तो कहो
मेरे मोहसिन हो तो फिर सर को हथेली प रखो
जंग में आए तो हो, सीना सिपर हो तो कहो
सुबह तो हो भी चुकी है प शोआएँ हैं कहाँ
इस सहर में भी दरख़्शाँ जो मेहेर हो तो कहो
साथ चलने को चलो, सोच लो लेकिन दिल में
कोई अंदेशा, कोई शक, कोई डर हो तो कहो
फूटते पाँव के छालों से गिला क्या करना
तपती राहों में कोई भी जो शजर हो तो कहो
जाने इस राह में “मुमताज़” कहाँ क्या होगा
मौत से आँख मिलाने का हुनर हो तो कहो
जज़्बा-ए-शो’ला फ़िशाँ – आग बरसाने वाला जज़्बा, पा ब शरर – अंगारों से भरे पाँव, गर्मी-ए-ज़ौक़-ए-अमल – कर्म करने की दिलचस्पी की
गर्मी, सीना सिपर – सीने को ढाल बनाने
वाला, शोआएँ – किरणें, सहर – सुबह, दरख़्शाँ – चमकता हुआ, मेहेर – सूरज, शजर – पेड़,
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