दाग़ क़बा के धुल जाएँगे, दाग़ जिगर के धो लेंगे
दाग़ क़बा के धुल जाएँगे , दाग़ जिगर के धो लेंगे मैला है किरदार भी लेकिन कब वो ये सच बोलेंगे मिट जाएगा दर्द भी इक दिन , पा जाएँगे राहत भी गिरते पड़ते वक़्त-ए-रवाँ के साथ जो हम भी हो लेंगे दिन तो चलो कट ही जाएगा रात मगर भारी होगी तारीकी में दिल की ज़मीं पर दर्द की फ़सलें बो लेंगे अंधों की बस्ती में हर सू बातिल की तारीकी है सच का नूर भी फैला हो तो ये बस राह टटोलेंगे लफ़्ज़ हैं ख़ून आलूद हमारे जज़्बों में चिंगारी है वो ही तो लौटाएँगे इस दुनिया से हम जो लेंगे तारीकी – अंधेरा , बातिल – झूठ