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विसाल

मेरे महबूब तेरे चाँद से चेहरे की क़सम तेरे आग़ोश में मुझको पनाह मिलती है वो तेरे मख़मली होंटों की छुअन का जादू जिस्म पर वो तेरी आँखों की चुभन का जादू वो तेरी साँसों में साँसों का मेरी मिल जाना वो तेरे होंटों से होंटों का मेरे सिल जाना वो तेरे प्यार की शिद्दत , वो तेरी बेताबी धड़कनों की वो सदा , आँखों की वो बेख़्वाबी वो तेरे रेंगते हाथों का नशा , उफ़! तौबा और दो जिस्मों के मिलने की सदा उफ़! तौबा वो तेरी मीठी शरारत , वो तेरी सरगोशी वो मेरी डूबती सिसकी , वो मेरी मदहोशी वो मेरे बंद-ए-क़बा धीरे से खुलते जाना वो तेरी नज़रों से पैकर मेरा धुलते जाना क्या बताऊँ मैं तुझे कैसी ये बेताबी है क्या कहूँ कौन सी उलझन में गिरफ़्तार हूँ मैं मैं तुझे कैसे बताऊँ मेरे दिल की बातें कैसे कह दूँ कि तेरे हिज्र की बीमार हूँ मैं मेरे महबूब तेरे चाँद से चेहरे की क़सम तेरे आग़ोश में मुझ को पनाह मिलती है

ज़िन्दगी

       ज़िन्दगी....! अल्लाह का बख़्शा हुआ नायाब तोहफ़ा... ज़िन्दगी अनमोल है , इसकी कोई क़ीमत नहीं , क़ाबिल अजमेरी कहते हैं दिन परेशाँ है , रात भारी है ज़िन्दगी है कि फिर भी प्यारी है        ज़िन्दगी के अनगिनत रंग हैं। प्यार का रंग , नफ़रत का रंग , ग़म का रंग , ख़ुशी का रंग , जश्न का रंग , मातम का रंग , और ये धनक रंग ज़िन्दगी हमें सिर्फ़ एक बार मिलती है , इसलिए हमारा फ़र्ज़ है कि हम इस ज़िन्दगी को भरपूर जियें , इसके पल पल का लुत्फ़ उठाएँ , इसके एक एक लम्हे में सदियाँ जी लें। लेकिन कैसे... ?        दोस्तो! हमारी ज़िन्दगी नसीब से वाबस्ता है। इस दुनिया में हर किसी को अपने नसीब के मुताबिक़ हर चीज़ आता होती है , किसी को ख़ुशी मिलती है तो किसी के हिस्से में ग़म आते हैं , किसी को अथाह प्यार मिलता है तो कोई नफ़रतों के लिए भी तरस जाता है , किसी को दौलत मिलती है तो किसी को मुफ़्लिसी , फिर भी ख़ुदा की दी हुई इस ज़िन्दगी को जीना पड़ता है....जीना ही पड़ता है। अब ये हम पर है कि हम इस ज़िन्दगी के एक एक लम्हे को हँस कर जी लें , या यूँ ही रो रो कर खो दें। ये सच है कि हर इंसान को ज़िन्दगी से एक जैस

नज़्म – टूटी कश्ती

तेरा वादा भी इक क़यामत है ज़िंदगी मेरी कमनसीब रही टूट कर गिरता हुआ जैसे कि तारा कोई यूँ तेरे वादे से लिपटी हुई उम्मीदें हैं कश्तियाँ टूटी हैं टकरा के जिन जज़ीरों से मौत की अंधी बस्तियों के वो हमसाए हैं दिल के आईने की बिखरी हुई किरचों की चुभन है शादीद इतनी कि जलने लगा अब सारा बदन मेरे महबूब मेरे टीसते ज़ख़्मों की क़सम तेरे आने का गुमाँ होता है हर आहट पर जब हिला देती हैं ज़ंजीर हवाएँ दर की लौट आती है नज़र गश्त लगा कर मायूस और फिर अपनी उम्मीदों पे हंसी आती है नाख़ुदा मेरे कभी वक़्त अगर मिल जाए दो घड़ी मुझ को बताना तो सही टूटी कश्ती से समंदर को कैसे पार करूँ जज़ीरों से – द्वीपों से ,  हमसाए – पड़ोसी , नाख़ुदा – मल्लाह 

उल्फ़तों को धो रहे हो

उल्फ़तों को धो रहे हो कितनी नफ़रत बो रहे हो होश हमवतनो संभालो नींद कैसी सो रहे हो बन रहे हो क्यूँ तमाशा अब भरम भी खो रहे हो हैं बुरी दुनिया की नज़रें बेरिदा क्यूँ हो रहे हो दुश्मनी का बोझ भारी क्यूँ सरों पर ढो रहे हो चुप रहो “ मुमताज़ नाज़ाँ ” किसके आगे रो रहे हो 

क्या क्या अजीब रंग बदलती है ज़िन्दगी

क्या क्या अजीब रंग बदलती है ज़िन्दगी हर लम्हा नए रूप में ढलती है ज़िन्दगी तू जब चले तो तेरी हर आहट के साथ साथ ख़ामोश , दबे पाओं से चलती है ज़िन्दगी साँसों की आँच , जिस्म की लौ और वफा की आग इक शमअ की मानिंद पिघलती है ज़िन्दगी तेरा सुकूत , तेरी हँसी , तेरी गुफ़्तगू तेरे लबों की छाँव में पलती है ज़िन्दगी लो शब हुई तमाम , नई सहर आ गई बेदार हो चुकी है संभलती है ज़िन्दगी गुज़रा है जिस तरफ़ से मोहब्बत का क़ाफ़िला उस रास्ते की ख़ाक में पलती है ज़िन्दगी मुट्ठी में बंद रेत फिसल जाए जिस जगह हाथों से लम्हा लम्हा फिसलती है ज़िन्दगी “ मुमताज़ ” तेरा प्यार , मेरी रूह का शिगाफ़ आतिशफ़िशान-ए-दर्द में जलती है ज़िन्दगी 

ज़ख़्मी रिश्तों का अभी बार उठाए चलिये

ज़ख़्मी रिश्तों का अभी बार उठाए चलिये राह दुश्वार सही , साथ निभाए चलिये कौन जाने कहाँ ले जाए ये आवारा मिज़ाज राह में कुछ तो निशानात बनाए चलिये और कुछ मरहले आएँगे , ज़रूरत होगी मशअलें दिल की अभी और जलाए चलिये क्या ख़बर रूह को फिर दर्द मिले या न मिले हाल के कर्ब को सीने से लगाए चलिये जब मक़ाम आए बिछड़ने का तो तकलीफ़ न हो बदगुमानी भी कोई दिल में छुपाए चलिये मंज़िलें और भी हैं ज़ीस्त की राहों में अभी जब तक आवाज़ कोई दिल को बुलाए , चलिये कब बिछड़ जाए कोई , कौन कहाँ मिल जाए हर क़दम कोई नया दीप जलाए चलिये आगे “ मुमताज़ ” अभी सेहरा की वुसअत होगी अश्क थोड़े अभी आँखों में छुपाए चलिये 

शोलानुमा हैं ज़ख़्म हमारे, लाखों तूफ़ाँ आहों में

शोलानुमा हैं ज़ख़्म हमारे , लाखों तूफ़ाँ आहों में ज़ुल्म-ओ-सितम से हमको झुका ले कौन है ऐसा शाहों में घुस आया है अबके दुश्मन शायद शहर पनाहों में आओ चलें , तहक़ीक़ करें , क्या उलझे हो अफ़वाहों में क़िस्मत के ये पेच हैं या फिर वक़्त-ए-रवाँ की बेमेहरी आ बैठे हैं राहों पर जो रहते थे आलीजाहों में जाने कहाँ था ध्यान हमारा , कौन सी राह पे आ निकले ऐसे भटके अबके हम , अब अटके हैं दोराहों में भूला भटका काश कभी वो मेरे घर तक आ जाए दिल में है बस एक तमन्ना , इक तस्वीर निगाहों में राह कठिन है , वक़्त बुरा है , पहले क्या मालूम न था ? थामा है जब हाथ तो मेरे साथ चलो इन राहों में एक नई मंज़िल की जानिब जारी है फिर आज सफ़र एक सुनहरे मुस्तक़बिल के ले कर ख़्वाब निगाहों में ग़म को सजा कर पेश किया है , दर्द को यूँ वुसअत दी है पलकों पर “ मुमताज़ ” सितारे , बाद-ए-बहाराँ आहों में शोलानुमा – लपट के जैसे , शहर पनाहों में – शहर की दीवार के अंदर , वक़्त-ए-रवाँ – गुज़रता हुआ वक़्त , बेमेहरी – बेरुख़ी , आलीजाहों में – ऊंचे मरतबे वाले लोगों में , मुस्तक़बिल – भविष्य ,