कुछ जवाज़ उस के तसव्वुर में भी दिल पाता नहीं
कुछ जवाज़ उस के तसव्वुर में भी दिल पाता नहीं किस तरह उस को भुलाऊं , कुछ समझ आता नहीं बन के चिंगारी बरसता है ख़यालों पर , कि अब अब्र बन कर वो तसव्वुर पर कभी छाता नहीं हर कहीं है इक जलन , इक कश्मकश , सौ वहशतें अब कोई मंज़र हमारे दिल को बहलाता नहीं ले गया वो साथ अपने ख़ुशबुओं का क़ाफ़िला फूल कोई भी खिले गुलशन को महकाता नहीं चार सू है इक सियाही , हर तरफ तारीकियाँ किस तरफ जाएं कि जब कुछ भी नज़र आता नहीं हम को अपने दिल से है "मुमताज़" बस ये ही गिला अक़्ल आ जाती तो धोका इस क़दर खाता नहीं जवाज़-सही होना , तसव्वुर-कल्पना , तारीकियाँ-अँधेरे