जबीं पे आपकी बूँदें हैं क्यूँ पसीने की
जबीं पे आपकी बूँदें हैं क्यूँ पसीने की सज़ा तो हमको मिली टुकड़ा टुकड़ा जीने की थपेड़े उसको फिराते रहे यहाँ से वहाँ किनारा छूने की ख़्वाहिश रही सफ़ीने की गुमाँ सा होता है हर शख़्स पर अदू का क्यूँ महक सी आती है सड़कों से कैसी क़ीने की जो उस के दिल में रहा दफ़्न राज़ बन के सदा ख़बर मिली भी कहाँ हम को उस दफ़ीने की शआर सबका तिजारत है इस ज़माने में है किसको क़द्र मोहब्बत के इस नगीने की तड़क के टूट गए जाने कैसे सब टाँके हज़ार कोशिशें कीं हम ने ज़ख़्म सीने की न हम थे मीरा न “ मुमताज़ ” थे कोई सुक़रात सज़ा ये कैसे मिली हमको ज़हर पीने की जबीं – माथा , सफ़ीने की – नाव की , अदू – दुश्मन , क़ीने की – धोखे की , दफ़ीने की – दबे हुए ख़ज़ाने की , शआर – चलन , तिजारत – व्यापार