ज़ीस्त एहसास के मातम के सिवा कुछ भी नहीं
ज़ीस्त
एहसास के मातम के सिवा कुछ भी नहीं
प्यार
बरबादी-ए-पैहम के सिवा कुछ भी नहीं
राह
सीधी सी, कोई मोड़ न दुश्वारी है
अब
यहाँ एक से मौसम के सिवा कुछ भी नहीं
अब
न माज़ी की कोई याद न ख़्वाब-ए-फ़र्दा
दिल
में जज़्बात के मातम के सिवा कुछ भी नहीं
बस
वही सहरा नवर्दी, वही आवारगी है
दिल
में अब एक से आलम के सिवा कुछ भी नहीं
एक
बोसीदा खँडर, चंद पुरानी यादें
इस
ख़ज़ाने के मुक़ाबिल तो इरम कुछ भी नहीं
तूल
ये राह का, दिल ऊब गया है अब तो
राह-ए-दुश्वार
में बस ख़म के सिवा कुछ भी नहीं
कल
का वो ख़्वाब भी “मुमताज़” कितना रंगीं था
आज
तो आँख में शबनम के सिवा कुछ भी नहीं
ज़ीस्त
–
ज़िन्दगी, पैहम – लगातार, दुश्वारी – मुश्किल, माज़ी – अतीत, ख़्वाब-ए-फ़र्दा – भविष्य
का सपना, सहरा नवर्दी – रेगिस्तान की
खाक छानना, बोसीदा – टूटा फूटा, इरम – जन्नत, तूल – लंबाई, ख़म – घुमाव
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