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हाथों से हर इक दामन-ए-हिस छूट रहा है

हाथों से हर इक दामन-ए-हिस छूट रहा है अब रात के ख़्वाबों का फ़ुसूँ टूट रहा है हसरत से , तमन्ना से , मोहब्बत से , ख़ुदी से दिल कितने तरीक़ों से मुझे लूट रहा है फिर कर के यक़ीं देख लें उस शख़्स पे आओ अब तक तो हर इक उस का करम झूठ रहा है कैसा ये अजब दर्द है कैसी ये तपक है छाला सा कोई दिल में कहीं फूट रहा है अब किससे गिला कीजिये क़िस्मत के सितम का जब मेरा मुक़द्दर ही मुझे लूट रहा है सुबहें ही नहीं लातीं यहाँ अब तो उजाला रातों की सियाही का भरम टूट रहा है जिस दौलत-ए-जाँ पर था हमें इतना भरोसा “ मुमताज़ ” वो सरमाया-ए-जाँ झूठ रहा है हिस – एहसास , फ़ुसूँ – जादू , सरमाया – पूँजी

कभी वो ऑनलाइन हो के जल्वाख़ेज़ होते हैं

कभी वो ऑनलाइन हो के जल्वाख़ेज़ होते हैं कभी वो ऑफलाइन हो के शरअंगेज़ होते हैं कोई पूछे ज़रा उनसे कि आख़िर माजरा क्या है कि किसके क़त्ल की ख़ातिर ये ख़ंजर तेज़ होते हैं कभी नेज़े सी चितवन और कभी तलवार से तेवर कभी रुस्तम , कभी दारा , कभी चंगेज़ होते हैं कभी थप्पड़ , कभी चप्पल से ये ख़ातिर कराते हैं बड़े जज़्बात ये उल्फ़त के फ़ितनाख़ेज़ होते हैं ये मौक़ा ताड़ कर अपना हर इक मंतर चलाते हैं सभी अंदाज़ उनके मस्लेहत अंगेज़ होते हैं जिगर पर तो कभी “ मुमताज़ ” दिल पर वार होता है इशारे उनके कैसे कैसे दिल आवेज़ होते हैं 

हर इक मोड़ पे एक शिकारी हर इक गाम पे तीरंदाज़

हर इक मोड़ पे एक शिकारी हर इक गाम पे तीरंदाज़ जाने कहाँ तक पहुँचाएगी ज़ख़्मी परों की ये परवाज़ अपनी मोहब्बत के हाथों से हम को मिला है ये ऐज़ाज़ बिखर गए सब जीवन के सुर टूट गया हस्ती का साज़ शामें बोझल , सुबहें काली , रातें वीराँ , दिन बेजान क्या जाने अंजाम हो कैसा जब है अभी ऐसा आग़ाज़ लब शोला , आरिज़ अंगारे , आँखों में है बर्क़-ए-तपाँ क्या क्या हैं दिलसोज़ अदाएँ , कैसा दिलकश है अंदाज़ वक़्त के इस वीराँ सहरा में दिल के सराबों के उस पार क्या जाने किस की आहट है , कौन ये देता है आवाज़ ख़ाली है जज़्बात का दामन हर हसरत नाकाम हुई अपने दिल की महरूमी पर आज हमें होता है नाज़ हसरत का वीरान खंडर , जज़्बों की दौलत , इश्क़ की लाश क़िस्मत की बंजर धरती में दफ़्न हैं कैसे कैसे राज़ क्या अंजाम फ़साने को दें सोच रहे हैं कब से हम कैसा मोड़ इसे दे कर अब ख़त्म करें क़िस्सा “ मुमताज़ ” गाम – क़दम , परवाज़ – उड़ान , ऐज़ाज़ इनआम , आग़ाज़ – शुरुआत , दिलसोज़ – दिल में दर्द पैदा करने वाला , सराबों के – मरीचिकाओं के 

ता उम्र ज़िन्दगी की रिफ़ाक़त मिली नहीं

ता उम्र ज़िन्दगी की रिफ़ाक़त मिली नहीं हम को मोहब्बतों की विरासत मिली नहीं बचपन तमाम सोच के जंगल में खो गया माँ का दुलार , बाप की शफ़क़त मिली नहीं मसरूफ़ियत की धुंध में इख़लास खो गया हम को तमाम उम्र ये राहत मिली नहीं हम सारी उम्र ग़म की फ़स्ल काटते रहे मेहनत बहुत कड़ी थी प उजरत मिली नहीं जीने की कश्मकश में कहाँ ज़िन्दगी गई ये सोचने की भी हमें फ़ुरसत मिली नहीं जो राह सामने थी वो आगे से बंद थी और वापसी की कोई भी सूरत मिली नहीं सहरा की वुसअतों में तअक़्क़ुब सराब का इस कश्मकश में जीने की फ़ुरसत मिली नहीं ताउम्र बेक़रार थे जिस की तलाश में मर कर भी वो सूकून की लज़्ज़त मिली नहीं जीने की आरज़ू भी ना जाने कहाँ गई और ज़िन्दगी से भी हमें रुख़सत मिली नहीं तनहाई में “ मुमताज़ ” करें जिस पे नाज़ हम ऐसी हयात में कोई साअत मिली नहीं 

देख के हम को कतरा जाना दुनिया का दस्तूर हुआ - एक बहुत पुरानी ग़ज़ल

देख के हम को कतरा जाना दुनिया का दस्तूर हुआ हम ना जिसे गिनती में लाए वो भी अब मग़रूर हुआ हम ने तो महफ़ूज़ बहुत रक्खा था अना के शीशे को आईना नाज़ुक था ज़रा सी ठेस लगी और चूर हुआ दस्त दराज़ी सब के आगे थी हमको मंज़ूर कहाँ हम कितने लाचार हुए ये दिल कितना मजबूर हुआ इस जंगल की वुसअत में हम चलते चलते हार गए राह कुशादा है अब भी सारा तन थक कर चूर हुआ किस ने इस वीराने में ये दीप जला कर छोड़ा था तेज़ हवा से लड़ता कब तक आख़िर वो बेनूर हुआ यूँ तो बहुत सी चोटें खाईं सारा तन ही ज़ख़्मी था ज़ख़्म वो जो “ मुमताज़ ” था दिल पर वो तो अब नासूर हुआ 

दीवाना बना दे

जुनून ऐसा कि हस्ती कमाल हो जाए हर एक साँस मेरी इक सवाल हो जाए बेख़ुदी की ये तलब हो हिज्र में जाँ ब लब हो ऐसा दीवाना बना दे मुझे अफ़साना बना दे तेरी तलब से परे तेरी राह से आगे तलाश मैं ने किया मेहर-ओ-माह से आगे कहाँ कहाँ ना मेरी बेख़ुदी पुकार आई कोई मिला ना तेरी जल्वागाह से आगे ना ख़बर है ना पता है तू सनम है कि ख़ुदा है मुन्कशिफ़ कर दे हक़ीक़त मुझे फ़रज़ाना बना दे जुनून रक़्स करे ऐसा वज्द तारी हो सूकून जिसमें रहे ऐसी बेक़रारी हो तड़पते दिल पे मोहब्बत की ग़मगुसारी हो जमाल-ए-यार की ज़ौ पर निगाह वारी हो जल्वा जब ऐसा ग़ज़ब हो फिर कहाँ पास-ए-अदब हो नश्शा छाने दे बला का जज़्बा रिन्दाना बना दे ये किस मक़ाम पे लाई है आशिक़ी मुझ को कि नूर बन के मिली दिल की तीरगी मुझ को बलन्दियों का मुझे ऐसा इश्तियाक़ हुआ कि रास आ गई तूफ़ाँ की रहबरी मुझको दिल में इक शमअ जली है इक तजल्ली सी खिली है चमक उट्ठे ये ज़माना नूर-ए-मस्ताना बना दे 

उस ने जब मुझ को मेरे जज़्बात वापस कर दिए

उस ने जब मुझ को मेरे जज़्बात वापस कर दिए क्यूँ बताऊँ मैं , कि मैं हूँ ग़मज़दा उस के लिए क्या कहा ? इन हसरतों से आप का जी भर गया हम भी अब इस खेल से तंग आ चुके हैं , जाइए जाने कितनी धज्जियों में इस दफ़ा बिखरे हैं हम दिल , जिगर , दामन , गरेबाँ , अब कोई क्या क्या सिये इश्क की ये आज़माइश आप के बस की नहीं क़त्ल होने के लिए भी तो कलेजा चाहिए तोड़ ही डाला न आख़िर ये खिलौना आप ने खेलने के वास्ते अब दूसरा दिल लाइए इस कहानी में नया पैवंद किस सूरत लगे जाने कब के भर चुके हैं ज़िन्दगी के हाशिये नफ़रतों की इन्तहा से इश्क़ के बहलाव तक आरज़ू के कैसे कैसे इम्तेहाँ उस ने लिए कुछ ख़बर "मुमताज़" तो हो कब तलक बर आएगी एक हसरत के लिए आख़िर कोई कब तक जिए जज़्बात- भावनाएं , ग़मज़दा- दुखी , हसरतों से- इच्छाओं से , बर आएगी- पूरी होगी