शिकस्ता हो के भी बिस्मिल नहीं था
शिकस्ता हो के भी बिस्मिल नहीं था मेरे सीने में शायद दिल नहीं था जिसे दे डालीं हम ने सारी साँसें हमारे प्यार के क़ाबिल नहीं था जो उस की याद आई तो ये जाना भुलाना भी उसे मुश्किल नहीं था मैं उस के बाद भी ज़िंदा हूँ , गोया वो मेरी रूह में दाख़िल नहीं था समंदर था , तलातुम था , भंवर थे कहीं भी कोई भी साहिल नहीं था हमें मालूम थे उस के इरादे किसी पहलू से दिल ग़ाफिल नहीं था जिसे हक दे दिया था फ़ैसले का वो मुजरिम था , कोई आदिल नहीं था हमें "मुमताज़" जो सरशार करता वो दिल को कर्ब भी हासिल नहीं था शिकस्ता- टूटा हुआ , बिस्मिल- घायल , गोया- जैसे कि , रूह में दाखिल- आत्मा में समाया हुआ , तलातुम- लहरों का उठना गिरना , साहिल- किनारा , आदिल- न्यायाधीश , सरशार- मदमस्त , कर्ब-दर्द