बुज़ुर्गों की बुज़ुर्गी आजकल घबराई है साहब - एक बहुत पुरानी ग़ज़ल
बुज़ुर्गों की बुज़ुर्गी आजकल घबराई है साहब जवाँ नेताओं पर कुछ यूँ जवानी आई है साहब ठिकाना ही नहीं कोई कि किस पर मेहरबाँ होगी सियासत की ये महबूबा बड़ी हरजाई है साहब खिलाड़ी बेच डाले , टीमें बेचीं , बेचे सौ सपने सभी ने अपनों को ये रेवड़ी बँटवाई है साहब किसी के लब पे गाली है किसी के हाथ में तरकश सभी की अपनी डफ़्ली , अपनी ही शहनाई है साहब हैं संसद में सभी इक दूसरे से बढ़ के बाज़ीगर कोई रहज़न , कोई क़ातिल , कोई बलवाई है साहब कोई अपना अजेंडा भी रहे ये क्या ज़रूरी है यहाँ तो सद्र-ए-आला सबका बाबा माई है साहब हमारे मुंह पे हम जैसी तो उनके मुंह पे उन जैसी हो सर्कोज़ी कि ओबामा , हर इक हरजाई है साहब विकी लीक्स पर ये एक्शन , ये असांजे की गिरफ़्तारी दबी है पूंछ तो नागन ये अब बल खाई है साहब हैं कितने मेहरबाँ “ मुमताज़ ” सब क़स्साब-ए-क़ातिल पर हमारा इंडिया भी कैसा हातिमताई है साहब