ग़म के ख़ज़ाने, दर्द की दौलत बाक़ी है
ग़म
के ख़ज़ाने, दर्द की दौलत बाक़ी है
अब
इस दिल में सिर्फ़ मोहब्बत बाक़ी है
वक़्त
के हाथों जिस को लुटा डाला था कभी
अब
भी दिल में घर की हाजत बाक़ी है
अब
जो दुआ को हाथ उठाएँ, क्या माँगें
जीने
की अब कौन सी सूरत बाक़ी है
रस्ता
किसका देख रही हैं अब आँखें
आने
को अब कौन सी आफ़त बाक़ी है
रात
की गहरी तारीकी है, और हम हैं
आँखों
में बस नींद की चाहत बाक़ी है
टूटे
फूटे दिल के कुछ टुकड़े हैं बस
दामन
में बस एक ये दौलत बाक़ी है
चंद
लकीरें चेहरे पर, कुछ हाथों में
ले
दे कर बस इतनी क़िस्मत बाक़ी है
सीने
में साँसें हैं दिल में धड़कन भी
जिस्म
में थोड़ी थोड़ी हरारत बाक़ी है
अब
हमको “मुमताज़” किसी से क्या शिकवा
ये
क्या कम है सूत-ओ-समाअत बाक़ी है
हाजत
–
ज़रूरत, तारीकी – अँधेरा, हरारत – गर्मी, शिकवा – शिकायत, सूत-ओ-समाअत – बोलने
और सुनने की क्षमता
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