रंग कहीं सौ सौ बिखरे हैं और कहीं वीराने हैं
रंग
कहीं सौ सौ बिखरे हैं और कहीं वीराने हैं
चेहरे
की इक एक शिकन में पिनहाँ सौ अफसाने हैं
अब
ये सफ़र की आख़िरी मंज़िल कितनी कुशादा लगती है
अब
भी ठहरना हम को गराँ है हम कैसे दीवाने हैं
ज़ख़्म
गिने, मरहम रक्खे, ये फ़ुरसत किसको है यारो
ज़ीस्त
के उलझे उलझे धागे हमको अभी सुलझाने हैं
इश्क़
में कितने पेच-ओ-ख़म हैं, ग़म में कितनी तारीकी
फिर
भी कशिश है इनमें कैसी, ये अनमोल ख़ज़ाने हैं
ज़िन्दगी
भी है एक अज़ीयत फिर भी कितनी प्यारी है
जीने
के इस दुनिया को अंदाज़ अभी सिखलाने हैं
वक़्त-ए-सफ़र
है, हसरत से तकते हैं दर-ओ-दीवार को हम
नक़्श
इन्हीं पर माज़ी के मुमताज़ कई अफ़साने हैं
पिनहाँ
–
छुपे हुए, कुशादा – विशाल, ज़ीस्त – ज़िन्दगी, पेच-ओ-ख़म – घुमाव और मोड़, तारीकी – अँधेरा, कशिश – आकर्षण, अज़ीयत – यातना, माज़ी – अतीत
Comments
Post a Comment