ग़ज़ल - ज़र्ब दे दे कर मेरी हस्ती प ढाती है मुझे
ज़र्ब दे दे कर मेरी हस्ती प ढाती है मुझे फिर मेरी दीवानगी वापस बनाती है मुझे ज़लज़ले आते रहे हैं मेरी हस्ती में मगर मेरी ज़िद हर बार फिर महवर प लाती है मुझे बेबहा कितने ख़ज़ाने दफ़्न हैं मुझ में कहीं ज़िन्दगी नादान है, पैहम लुटाती है मुझे रोज़ गुम हो जाती हूँ मैं इस जहाँ की भीड़ में मेरी तन्हाई पता मेरा बताती है मुझे जब कभी बुझने लगे मेरा वजूद-ए -बेकराँ कोई तो मुझ में है शै, जो फिर जलाती है मुझे चाहे जितनी भी हो गहरी तीरगी अय्याम की मेरे दिल की रौशनी रस्ता दिखाती है मुझे चैन लेने ही नहीं देती हैं मुझ को वहशतें इक मुसलसल बेकली दर दर फिराती है मुझे मैं पलट कर देख लूँ तो संग हो जाए वजूद "याद की ख़ुशबू पहाड़ों से बुलाती है मुझे" बारहा जेहद-ए -मुसलसल तोड़ देता है मगर मुझ में जो "मुमताज़" है वो आजमाती है मुझे zarb de de kar meri hasti pa, dhaati hai mujhe phir meri deewangi waapas banaati hai mujhe zalzale aate rahe hain meri hasti meN, magar meri zid har baar phir mahwar pa laati hai mujhe bebahaa kitne khazaane dafn haiN mujh meN kahiN