अश्क पीने को शब-ओ-रोज़ अलम1 खाने को
अश्क पीने को शब-ओ-रोज़ अलम 1 खाने को हम जिये जाते हैं नित दर्द नया पाने को ज़िन्दगी जाने कहाँ छोड़ के हम को चल दी हम ज़रा देर जो बैठे यहाँ सुस्ताने को चल पड़ी थीं जो ये दिल छोड़ के सब उम्मीदें हसरतें दूर तलक आई थीं समझाने को एक मोती जो तेरी आँख से टपका है अभी मैं कहाँ रक्खूँ अब इस क़ीमती नज़राने को आज के दौर के बच्चे भी बड़े शातिर हैं अब सुने कौन अलिफ़ लैला के अफ़साने को डाल दी है जो तअस्सुब 2 ने दिलों में अपने मुद्दतें चाहिएँ इस गाँठ के सुलझाने को जिस को कहते हैं मोहब्बत ये ज़माने वाले इक खिलौना है दिल-ए-ज़ार 3 के बहलाने को कोई भी चीज़ कभी हस्ब-ए-ज़रूरत 4 न मिली आख़िरश 5 तोड़ दिया ज़ात के पैमाने को कोई हद ही नहीं "मुमताज़" तबाही की तो फिर हम भी आमादा हैं अब हद से गुज़र जाने को 1- दुख , 2- भेद-भाव , 3- दुखी दिल , 4- ज़रूरत के मुताबिक़ , 5- आख़िरकार اشک پینے کو شب و روز الم کھانے کو ہم جئے جاتے ہیں نت درد نیا پانے کو زندگی جانے کہاں چھوڑ کے ہم کو چل دی ہم ذرا دیر جہ بیٹھے یہاں سستانے کو چل پڑی تھیں جو یہ دل چھوڑ کے سب...