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आँखों में तीर बातों में ख़ंजर लिए हुए

आँखों में तीर बातों में ख़ंजर लिए हुए बैठा है कोई शिकवों का दफ़्तर लिए हुए शीशागरी का शौक़ मुझे जब से हुआ है दुनिया है अपने हाथों में पत्थर लिए हुए जाने कहाँ कहाँ से गुज़रते रहे हैं हम आवारगी फिरी हमें दर दर लिए हुए लगता है चूम आई है आरिज़ बहार के आई नसीम-ए-सुबह जो अंबर लिए हुए क्या क्या सवाल लरज़ाँ थे उस की निगाह में लौट आए हम वो आख़िरी मंज़र लिए हुए दिल में धड़कते प्यार की अब वुसअतें न पूछ क़तरा है बेक़रार समंदर लिए हुए “मुमताज़” संग रेज़े भी अब क़ीमती हुए बैठे हैं हम निगाहों में गौहर लिए हुए

झूटी बातों पर रोया सच

झूटी   बातों   पर   रोया   सच हर   बाज़ी   में   जब   हारा   सच कुछ   तो   मुलम्मा   इस   पे   चढाओ बेक़ीमत   है   ये   सादा   सच झूठ   ने   जब   से   पहनी   सफेदी छुपता   फिरता   है   काला   सच अब   है   हुकूमत   झूठ   की   लोगो दर   दर   भटके   बंजारा   सच सच   सुनने   की   ताब   न   थी   तो क्यूँ   आख़िर   तुम   ने   पूछा   सच बन   जाए   जो   वजह   ए तबाही " बेमक़सद   है   फिर   ऐसा   सच" मिसरा   क्या   "मुमताज़ " मिला   है हम   ने   लफ़्ज़ों   में   ढाला   सच jhooti baatoN par roya sach har baazi meN jab haara sach kuchh to mulamma is pe chadhaao beqeemat hai ye saada sach jhoot ne jab se pahni safedi chhupta phirta ...

रेग-ए-रवाँ

सुना था ये कभी मैं ने मोहब्बत का जो दरिया है कभी सूखा नहीं करता मगर ये सच नहीं यारो कभी ऐसा भी होता है मोहब्बत का ये दरिया धीरे धीरे सूख जाता है वफाओं की हरारत से जफाओं की तमाज़त से अदाकारी की शिद्दत से रियाकारी की जिद्दत से कहीं दिल में कोई रेग-ए-रवाँ तशकील पाता है

उम्मीद का मेरे दिल पर हिसार है कि नहीं

उम्मीद का मेरे दिल पर हिसार है कि नहीं नदी भी कोई सराबों के पार है कि नहीं वो कशमकश में है , मैं भी इसी ख़याल में हूँ सफ़र के तूल में राह ए फ़रार है कि नहीं मैं जान देने को दे दूँ , प ये तो वाज़ेह कर तेरे निसारों में मेरा शुमार है कि नहीं मुझे तो ज़ख़्मी अना का सुरूर है कब से शराब-ए-ज़ात का तुझ को ख़ुमार है कि नहीं जो तुझ को रहना है दिल में तो सोच ले पहले ज़मीन ए जंग तुझे साज़गार है कि नहीं मैं ढूँढती हूँ ग़ुरूर-ए-अना की आँखों में मेरे क़लम में अभी तक वो धार है कि नहीं यही सवाल सताता है दिल को हर लम्हा मेरी तलाश में अब वो बहार है कि नहीं चलेगा सिलसिला कब तक ये आज़माइश का मेरी वफा का तुझे ऐतबार है कि नहीं हम आ तो पहुँचे मगर सोचते हैं अब "मुमताज़" जहाँ पहुँचना था ये वो दयार है कि नहीं

कोई पूछे जहाँ में क्या देखा

कोई पूछे जहाँ में क्या देखा देखा जो कुछ वो ख़्वाब सा देखा जब भी निकले तलाश में उस की दूर तक कोई नक़्श ए पा देखा अपने अंदर तलाश की जब भी इक जहाँ दिल में भी छुपा देखा हो के मजबूर दिल के हाथों से उस को सब की नज़र बचा देखा कब तलक होगी आज़माइश ये अब तो हर एक ज़ुल्म ढा देखा अब तो नासेह भी ये नहीं कहते झूठ का हश्र बस बुरा देखा तीरगी तो किसी तरह न मिटी हम ने दिल का जहाँ जला देखा खाक का एक बुत हूँ मैं "मुमताज़" तू ने ऐ यार मुझ में क्या देखा

अब भी एहसास कोई ख़्वाबज़दा है मुझ में

अब   भी   एहसास   कोई   ख़्वाबज़दा   है   मुझ   में कब   से   मैं   ढूँढ रही   हूँ   के   ये   क्या   है   मुझ   में मुन्तज़िर   कब   से   ये   ख़ामोश ख़ला है   मुझ   में कोई   दर   है   जो   बड़ी   देर   से   वा   है   मुझ   में इक   ज़रा   चोट   लगेगी   तो   उबल   उट्ठेगा एक   मुद्दत   से   तलातुम   ये   रुका   है   मुझ   में फिर   से   फैला   है   मेरे   दिल   में   अजब   सा   ये   सुकूत फिर से   तूफ़ान   कोई   जाग   रहा   है   मुझ   में कोई   आहट   है   के   दस्तक   है   के   फ़रियाद   कोई कैसा   ये   शोर   सा   है , कुछ   तो   बचा   है   मुझ   में ये ...

कभी सरापा इनायत, कभी बला होना

कभी सरापा इनायत , कभी बला होना ये किस से आप ने सीखा है बेवफ़ा होना उसे सफ़र की थकन ने मिटा दिया लेकिन न रास आया हमें भी तो रास्ता होना दिल-ओ-दिमाग़ की परतें उधेड़ देता है दिल-ओ-दिमाग़ की दुनिया का क्या से क्या होना सितम ज़रीफ़ ये तेवर , ये क़ातिलाना अदा कभी हज़ार गुज़ारिश , कभी ख़फ़ा होना वो इक अजीब सा नश्शा वो मीठी मीठी तड़प वो पहली बार मोहब्बत से आशना होना ख़ुमार इस में भी "मुमताज़" तुम को आएगा किसी ग़रीब का इक बार आसरा होना