है एक सा सब का लहू, फिर क्या है ये तेरा मेरा
है एक सा सब का लहू , फिर क्या है ये तेरा मेरा हिन्दू तेरे , मुस्लिम तेरे , काशी तेरी , काबा तेरा बैठे हुए हैं आज तक , तू ने जहाँ छोड़ा हमें हम पर है ये इल्ज़ाम क्यूँ रास्ता नहीं देखा तेरा जीने का फ़न , मरने की ख़ू , सौ हसरतें टूटी हुईं क्या क्या हमें तू ने दिया , एहसान है क्या क्या तेरा फिर इम्तेहाँ का वक़्त है , साइल है तू दर पर मेरे उलफ़त की रख लूँ लाज फिर , ला तोड़ दूँ कासा तेरा ये रब्त भी अक्सर रहा तेरे मेरे जज़्बात में आँखें नहीं सूखीं मेरी , दामन नहीं भीगा तेरा जलती हुई बाद-ए-सबा , भीगी हुईं परछाइयाँ ऐ सुबह-ए-ग़म कुछ तो बता , क्यूँ रंग है काला तेरा तन्हा रहे “ मुमताज़ ” कब हम ज़िन्दगी की राह में अब तक मेरे हमराह है तेरी महक , साया तेरा