मेरी ख़ुशबू अगर सबा ले जाए
मेरी ख़ुशबू अगर सबा ले जाए
संग यादों का क़ाफ़िला ले जाए
मेरे हाथों से लिक्खा नाम अपना
क्यूँ किताबों में वो दबा ले जाए
और मेरे पास क्या है इस के सिवा
वो जो चाहे, मेरी वफ़ा ले जाए
बेरहम है जहान-ए-ज़र का निज़ाम
सर से ग़ुर्बत के जो रिदा ले जाए
अब तो यादें भी मेरे पास नहीं
वो जो ले जाए भी तो क्या ले जाए
क्या बुरा है कि अपनी आँखों में
ख़्वाब मेरे भी वो बसा ले जाए
मेरी वहशत सँभाल कर अक्सर
ज़िंदगी से मुझे बचा ले जाए
कह दो “मुमताज़” क़ुर्ब का अपने
लम्हा लम्हा वो अब उठा ले जाए
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