पारा पारा है वजूद और अना बार हुई - एक बहुत पुरानी ग़ज़ल
पारा पारा है वजूद और अना बार हुई हर तमन्ना मेरी रुसवा सर-ए-बाज़ार हुई आहू-ए-आरज़ू आवारा भटकती थी कभी अब तड़पती है किसी तीर का शिकार हुई बेख़ुदी नूर के सहरा में लिए जाती थी हर तरफ़ ग़म ही मिला आँख जो बेदार हुई जंग तक़दीर से थी और इधर मैं तन्हा टूट कर बिखरा वजूद ऐसी मेरी हार हुई संगरेज़ों की इबादत से भरम भी खोया और मैं अपनी ही नज़रों में गुनहगार हुई अना – अहं , बार – बोझ , आहू – हिरण , बेदार – जागना , संगरेज़ों – पत्थर के टुकड़ों