ता उम्र ज़िन्दगी की रिफ़ाक़त मिली नहीं
ता उम्र ज़िन्दगी की रिफ़ाक़त मिली नहीं हम को मोहब्बतों की विरासत मिली नहीं बचपन तमाम सोच के जंगल में खो गया माँ का दुलार , बाप की शफ़क़त मिली नहीं मसरूफ़ियत की धुंध में इख़लास खो गया हम को तमाम उम्र ये राहत मिली नहीं हम सारी उम्र ग़म की फ़स्ल काटते रहे मेहनत बहुत कड़ी थी प उजरत मिली नहीं जीने की कश्मकश में कहाँ ज़िन्दगी गई ये सोचने की भी हमें फ़ुरसत मिली नहीं जो राह सामने थी वो आगे से बंद थी और वापसी की कोई भी सूरत मिली नहीं सहरा की वुसअतों में तअक़्क़ुब सराब का इस कश्मकश में जीने की फ़ुरसत मिली नहीं ताउम्र बेक़रार थे जिस की तलाश में मर कर भी वो सूकून की लज़्ज़त मिली नहीं जीने की आरज़ू भी ना जाने कहाँ गई और ज़िन्दगी से भी हमें रुख़सत मिली नहीं तनहाई में “ मुमताज़ ” करें जिस पे नाज़ हम ऐसी हयात में कोई साअत मिली नहीं