kabhi aasha jagaat hai
कभी आशा जगाता है
कभी सपने दिखाता है
मेरे दिल के अँधेरों
में उजाला झिलमिलाता है
अचानक बैठे बैठे
आँख भर आती है, जाने क्यूँ
ये कैसा दर्द है, ये कौन ग़म मुझ को रुलाता है
न जाने कौन से वहशतकदे
में खो गई हूँ मैं
मुझे बस इक यही
ग़म रफ़ता रफ़्ता खाए जाता है
दिखा कर आसमां की
वुसअतें, पर काट देता है
मुक़द्दर इस तरह
हर बार मुझ को आज़माता है
जो बरसों बंद हो, उस घर से बदबू आने लगती है
जो खुल कर सच न
कह पाये वो रिश्ता टूट जाता है
मेरी महरूमियों
का आम है चर्चा ज़माने में
मुझे "मुमताज़"
मेरा अक्स भी अब मुंह चिढ़ाता है
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