किस को थी मालूम उस नायाब गौहर की तड़प

किस को थी मालूम उस नायाब गौहर की तड़प

एक क़तरे में निहाँ थी दीदा-ए-तर की तड़प

 

फ़र्त-ए-हसरत से छलकते आबगीने छोड़ कर

कोई निकला था सफ़र पर ले के घर भर की तड़प

 

भूक बच्चों की, दवा वालिद की, माँ की बेबसी

कू ब कू फिरने लगी है आज इक घर की तड़प

 

ढह न जाए फिर कहीं ये मेरी हस्ती का खंडर

कैसे मैं बाहर निकालूँ अपने अंदर की तड़प

 

कब छुपे हैं ढाँप कर भी ज़ख़्म तपती रूह के

दाग़ करते हैं बयाँ इस तन के चादर की तड़प

 

ज़ब्त ने तुग़ियानियों का हर सितम हँस कर सहा

साहिलों पर सर पटकती है समंदर की तड़प

 

आरज़ू, सहरा नवर्दी, ज़ख़्म, आँसू, बेबसी

हासिल-ए-दीवानगी है ज़िन्दगी भर की तड़प

 

ये हमारी मात पर भी कितना बेआराम है

देख ली मुमताज़ जी” हम ने मुक़द्दर की तड़प

 

नायाब – दुर्लभ, गौहर – मोती, क़तरे में – बूँद में, निहाँ – छुपी हुई, दीदा-ए-तर – आँसू भरी आँख, फ़र्त-ए-हसरत – बहुलता, आबगीनेग्लास, वालिद – बाप, कू ब कू – गली गली, तुग़ियानियों लहरों की हलचल, साहिल – किनारा, आरज़ू इच्छा, सहरा नवर्दी – मरुस्थल में भटकना, हासिल-ए-दीवानगी – पागलपन की कमाई


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