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Showing posts from 2021
छुपाएँ हाल कहाँ तक अज़ाब-ए-बिस्मिल का
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छुपाएँ हाल कहाँ तक अज़ाब-ए-बिस्मिल का अब आ चुका है लबों तक मुआमिला दिल का छुपाए लाख कोई जुर्म छुप नहीं सकता लहू भी बोलता है आस्तीन-ए-क़ातिल का तलातुम ऐसा उठा ज़ात के समंदर में कहीं नहीं है कोई भी निशान साहिल का न क़ैद - ए - इश्क़ , न ज़िंदाँ , न अब है कोई गिरफ़्त पिघल चुका है सब आहन तेरे सलासिल का जो ज़िद पे आए तो क़िस्मत के बल निकाल दिये जवाब ढूंढ लिया हम ने अपनी मुश्किल का है रंग रंग की सहबा , हैं ज़र्फ़ ज़र्फ़ के रिंद मुआमिला है अजब यार तेरी महफ़िल का यही उम्मीद लिए उस के दर पे बैठे हैं कभी तो पूछ ले "मुमताज़" हाल वो दिल का
जहाँ में मुफ़लिसी ही मुफ़लिसी थी
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जहाँ में मुफ़लिसी ही मुफ़लिसी थी ख़ज़ानों में ख़ुदा के क्या कमी थी फ़ज़ा की तीरगी में खो गई थी इबादत दामन - ए - शब में जो की थी चमन में खिल उठे थे गुल हज़ारों बहारों ने तेरी आहट सुनी थी मेरा एहसास पत्थर हो गया था ये किसने दश्त से आवाज़ दी थी जलाया करती थी मुझको मुसलसल मेरे सीने में कोई आग सी थी मगर हम फिर भी थे बेज़ार इस से तेरी दुनिया में कितनी दिलकशी थी ख़िरद की सिर्फ़ ऐयारी न आई जुनूँ था , चाह थी , दीवानगी थी क़फ़स वालों के लब पर थीं दुआएँ कहीं "मुमताज़" फिर बिजली गिरी थी मुफ़लिसी – ग़रीबी , तीरगी – अंधेरा , इबादत – पूजा , दामन - ए - शब – रात का आँचल , दश्त – जंगल , मुसलसल – निरंतर , बेज़ार – ऊबे हुए , दिलकशी आकर्षण , ख़िरद – अक़्ल , ऐयारी – मक्कारी , जुनूँ – धुन , दीवानगी – पागलपन , क़फ़स – पिंजरा
है सूखी पड़ी कब से ख़्वाबों की छागल
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है सूखी पड़ी कब से ख़्वाबों की छागल तो मुरझा गई ज़िंदगानी की कोंपल ख़ुदा जाने टूटा है सामान क्या क्या मेरे दिल के अंदर बहुत शोर था कल कहो दिल के सेहरा से मोहतात गुज़रें कहीं जल न जाए बहारों का आँचल हैं ख़ामोश कब से जुनूँ के इरादे सुकूँ ढूँढती है , तमन्ना है पागल निभेगा कहाँ साथ जन्मो-जनम का ग़नीमत हैं ये दो शनासाई के पल है तूफ़ान सा बेहिसी की ख़ला में बयाबान दिल में अजब सी है हलचल है नालाँ तलब , जुस्तजू थक गई है मोअम्मा ये हस्ती का होता नहीं हल सिला तेजगामी का "मुमताज़" ये है जुनूँ खो गया और तमन्ना है बोझल सेहरा – मरुस्थल , मोहतात – सावधानी से , शनासाई – जान-पहचान , बेहिसी – भावनाशून्यता , ख़ला – निर्वात , नालाँ – विलाप , तलब - माँग , जुस्तजू – खोज , मोअम्मा – पहेली , हस्ती – अस्तित्व
आज स्वतन्त्रता दिवस के मौके पर पेश है यह कार्यक्रम: एक शाम देश के नाम
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kabhi aasha jagaat hai
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कभी आशा जगाता है कभी सपने दिखाता है मेरे दिल के अँधेरों में उजाला झिलमिलाता है अचानक बैठे बैठे आँख भर आती है , जाने क्यूँ ये कैसा दर्द है , ये कौन ग़म मुझ को रुलाता है न जाने कौन से वहशतकदे में खो गई हूँ मैं मुझे बस इक यही ग़म रफ़ता रफ़्ता खाए जाता है दिखा कर आसमां की वुसअतें , पर काट देता है मुक़द्दर इस तरह हर बार मुझ को आज़माता है जो बरसों बंद हो , उस घर से बदबू आने लगती है जो खुल कर सच न कह पाये वो रिश्ता टूट जाता है मेरी महरूमियों का आम है चर्चा ज़माने में मुझे "मुमताज़" मेरा अक्स भी अब मुंह चिढ़ाता है
dard e wahshat ko tabassum kii qaba dete hain #Mumtaz Aziz Naza New #Ghazal
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#New Ghazal Recited by #Mumtaz Aziz Naza rang bhare khwaabon kii dhanak ...
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A #Ghazal by #Mumtaz shab e taareek hai #Urdu #Poetry #Shairi #Shayeri #...
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FB live 10-08-2020 #Urdu Poetry #Shayri #ghazal #Mumtaz Naza #Mumtaz #Az...
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