छुपाएँ हाल कहाँ तक अज़ाब-ए-बिस्मिल का

 छुपाएँ हाल कहाँ तक अज़ाब-ए-बिस्मिल का

अब आ चुका है लबों तक मुआमिला दिल का

 

छुपाए लाख कोई जुर्म छुप नहीं सकता

लहू भी बोलता है आस्तीन-ए-क़ातिल का

 

तलातुम ऐसा उठा ज़ात के समंदर में

कहीं नहीं है कोई भी निशान साहिल का

 

न क़ैद--इश्क़, न ज़िंदाँ, न अब है कोई गिरफ़्त

पिघल चुका है सब आहन तेरे सलासिल का

 

जो ज़िद पे आए तो क़िस्मत के बल निकाल दिये

जवाब ढूंढ लिया हम ने अपनी मुश्किल का

 

है रंग रंग की सहबा, हैं ज़र्फ़ ज़र्फ़ के रिंद

मुआमिला है अजब यार तेरी महफ़िल का

 

यही उम्मीद लिए उस के दर पे बैठे हैं

कभी तो पूछ ले "मुमताज़" हाल वो दिल का

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