जहाँ में मुफ़लिसी ही मुफ़लिसी थी

 

जहाँ में मुफ़लिसी ही मुफ़लिसी थी

ख़ज़ानों में ख़ुदा के क्या कमी थी

 

फ़ज़ा की तीरगी में खो गई थी

इबादत दामन--शब में जो की थी

 

चमन में खिल उठे थे गुल हज़ारों

बहारों ने तेरी आहट सुनी थी

 

मेरा एहसास पत्थर हो गया था

ये किसने दश्त से आवाज़ दी थी

 

जलाया करती थी मुझको मुसलसल

मेरे सीने में कोई आग सी थी

 

मगर हम फिर भी थे बेज़ार इस से

तेरी दुनिया में कितनी दिलकशी थी

 

ख़िरद की सिर्फ़ ऐयारी न आई

जुनूँ था, चाह थी, दीवानगी थी

 

क़फ़स वालों के लब पर थीं दुआएँ

कहीं "मुमताज़" फिर बिजली गिरी थी

 

मुफ़लिसी – ग़रीबी, तीरगी – अंधेरा, इबादत – पूजा, दामन--शब – रात का आँचल, दश्त – जंगल, मुसलसल – निरंतर, बेज़ार – ऊबे हुए, दिलकशी आकर्षण, ख़िरद – अक़्ल, ऐयारी – मक्कारी, जुनूँ – धुन, दीवानगी – पागलपन, क़फ़स – पिंजरा

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