वफ़ा के अहदनामे में हिसाब-ए-जिस्म-ओ-जाँ क्यूँ हो
वफ़ा के अहदनामे में हिसाब-ए-जिस्म-ओ-जाँ क्यूँ हो
बिसात-ए-इश्क़ में अंदाज़ा-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ
क्यूँ हो
मेरी परवाज़ को क्या क़ैद कर पाएगी हद कोई
बंधा हो जो किसी हद में वो मेरा आसमाँ क्यूँ हो
सहीफ़ा हो कि आयत हो हरम हो या सनम कोई
कोई दीवार हाइल मेरे उस के दर्मियाँ क्यूँ हो
तअस्सुब का दिलों की सल्तनत में काम ही
क्या है
मोहब्बत की ज़मीं पर फितनासाज़ी हुक्मराँ क्यूँ हो
सरापा आज़माइश तू सरापा हूँ गुज़ारिश मैं
तेरी महफ़िल में आख़िर बंद मेरी ही ज़ुबाँ क्यूँ हो
जहान-ए-ज़िन्दगी से ग़म का हर नक़्शा मिटाना है
ख़ुशी महदूद है,
फिर ग़म ही आख़िर बेकराँ क्यूँ हो
ये है सय्याद की साज़िश वगरना क्या ज़रूरी है
“गिरी है जिस पे कल बिजली वो मेरा आशियाँ क्यूँ हो”
हमें हक़ है कि हम ख़ुद को किसी भी शक्ल में ढालें
हमारी ज़ात से 'मुमताज़'
कोई बदगुमाँ क्यूँ हो
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