नज़रें टिकाए बैठी हूँ कब से मैं ख़्वाब में
नज़रें टिकाए बैठी हूँ कब से मैं ख़्वाब में
मंज़र हज़ार सिमटे हैं हर इक हुबाब में
यादों के रेगज़ार में फिरते हैं दर ब दर
मिलता है इक अजीब सुकूँ इस अज़ाब में
बदरंग पन्ना पन्ना है, बिखरा वरक़ वरक़
लिक्खा है एक नाम अभी तक किताब में
बीनाई छीन ली गई इस जुर्म में मेरी
देखा था इक हसीन नज़ारा जो ख़्वाब में
थोड़ी सी झूठ की भी मिलावट तो थी ज़रूर
लर्ज़िश सी क्यूँ ये आ गई उस के जवाब में
इक तश्नगी का बोझ संभाले लबों प हम
कब से भटक रहे हैं वफ़ा के सराब में
“मुमताज़” अस्बियत ने सिखाया है ये सबक़
शामिल कहाँ थीं नफ़रतें दिल के निसाब में
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