इंसाफ़


ये नज़्म मैं ने तब लिखी थी जब इशरत जहां को सूप्रीम कोर्ट ने बेक़ुसूर करार दिया था...उम्मीद है आप को पसंद आएगी

तोड़ ही डाला ख़ुदा ने लो तअस्सुब का ग़ुरूर
दोस्तो, इशरत जहाँ साबित हुई है बेक़ुसूर
देखना है ये सितारे रंग क्या दिखलाएंगे
क्या बहाना अब के अपने रहनुमा फ़रमाएंगे
किस तरह अब के हमारे ज़ख़्म ये सहलाएंगे
क्या कहा? इंसाफ़ ये मक़्तूल को दिलवाएँगे?

वाह वा, क्या ख़ूब हैं इन की करम फ़रमाइयाँ
क्या अदा-ए-नाज़ है, क्या ख़ूब अंदाज़-ए-बयाँ
वक़्त को माज़ी में लेकिन ले के जा सकते हैं क्या
जान ये इशरत जहाँ की फिर दिला सकते हैं क्या
खोई है इक माँ ने बेटी, वो भी लौटाएँगे क्या?
ज़ुल्म के ये देवता इंसाफ़ फ़रमाएँगे क्या

ज़ुल्म के काले हुनर की बानगी तो देखिये
रक्षकों की अपने ये मर्दानगी तो देखिये
क्या करेंगे ये भला दहशत के दानव का शिकार
एक अबला, बेबस-ओ-लाचार पर करते हैं वार
आज इंसानी लहू से किस का दामन साफ़ है?
मार दो बेमौत जिस को चाहो, क्या इंसाफ़ है

रहनुमाओ, जाँ हमारी इतनी सस्ती? किस लिए?
घर जलाने वालों की ये सर परस्ती किस लिए?
दार पर इंसानियत को टाँगने वालों से तुम
पूछ लेना वोट अब के मांगने वालों से तुम
हम तुम्हारे वास्ते शतरंज की इक गोट हैं
हैं कहाँ इंसान आख़िर हम तो बस इक वोट हैं

चल रहा है कब से बेइंसाफ़ियों का सिलसिला
अपनी इन बदबख़्तियों का हम करें किस से गिला
नफ़रतें, धोका, हिक़ारत, अपना सरमाया रहा
हम जो मरते हैं तो मर जाएँ, तुम्हें इससे है क्या


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