शिकस्ता हसरतों को अपना जो रहबर बना लेते
शिकस्ता हसरतों को अपना जो रहबर बना लेते
हम अपनी ज़ात के अंदर भी इक महशर बना लेते
हमारे दिल की आतिश सर्द होती जाती है वरना
हम अपनी बेड़ियों को ढाल कर ख़ंजर बना लेते \
हम अपने हौसलों को अब भी जो थोड़ी हवा देते
पसीने को भी अपने अंजुम-ओ-अख़्तर बना लेते
अगर परवाज़ अपनी साथ दे देती इरादों का
जुनूँ की ज़र्ब से हम आस्माँ में दर बना लेते
मज़ा होता अगर इस सहबा-ए-उल्फ़त में थोड़ा भी
तो दिल की किरचियों को जोड़ कर साग़र बना लेते
अगर ये दौलत-ए-यास-ओ-अलम मिलती नहीं तो भी
नज़र के शबनमी क़तरों को हम गौहर बना लेते
अभी “मुमताज़” इतना तो न था जज़्बा परस्तिश का
तुझे क़िस्मत का अपनी किस लिए रहबर बना लेते
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