ऐसे मरकज़ प है ख़ूँख़्वारी अब इन्सानों की
ऐसे मरकज़ प है ख़ूँख़्वारी अब इन्सानों की
अब भला क्या है ज़रूरत यहाँ शैतानों की
बेड़ियाँ चीख़ उठीं यूँ कि जुनूँ जाग उठा
हिल गईं आज तो दीवारें भी ज़िंदानों की
उन निगाहों की शरारत का ख़ुदा हाफ़िज़ है
लूट लें झुक के ज़रा आबरू मैख़ानों की
हम ने घबरा के जो आबाद किया है इन को
आज रौनक़ है सिवा देख लो वीरानों की
ख़ून से लिक्खी गई है ये मोहब्बत की किताब
कितनी दिलचस्प इबारत है इन अफ़सानों की
अपनी क़िस्मत का भरम रखने को हम तो “मुमताज़”
लाश काँधों पे लिए फिरते हैं अरमानों की
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