रुख़ हवाओं का किधर है, और मेरी मंज़िल कहाँ

रुख़ हवाओं का किधर है, और मेरी मंज़िल कहाँ
इस तलातुम में न जाने खो गया साहिल कहाँ

रात का वीरान मंज़र, रास्ते ख़ामोश थे
दूर देता था सदाएं जाने इक साइल कहाँ

जल रही है रूह तक, दिल थक गया है, ज़हन कुंद
ये कहाँ बेहिस सी ज़िद, वो जज़्बा ए कामिल कहाँ

उलझनें कैसी, कहाँ वो उल्फतें, वो रंजिशें
वो हमारी ज़िन्दगी में रह गया शामिल कहाँ

और तो सब कुछ है, राहत है, सुकूँ भी है मगर
वो मचलती आरज़ू, वो ज़ीस्त का हासिल कहाँ

उस ने जो सोचा, जो चाहा, हम वो सब करते रहे
हम भला उस के इरादों से रहे ग़ाफिल कहाँ

इक निगाह ए मेहर ओ उल्फ़त, इक नज़र, इक इल्तेफ़ात
ये मगर मेरी गुजारिश ग़ौर के क़ाबिल कहाँ

दर्द जब हद से बढ़ा तो हर तड़प जाती रही
रूह तक ज़ख़्मी हो जब, तो फिर सिसकता दिल कहाँ

अब तअस्सुब की लपट में क़ैद है सारा वतन
मुंह छुपाए हैं पड़े ये आलिम ओ फ़ाज़िल कहाँ

आसमाँ की सिम्त हम देखा करें उम्मीद से
हम गुनहगारों प् होता है करम नाज़िल कहाँ

एक जुम्बिश दें नज़र को तो ख़ुदाई हो निसार
रह गए इस दौर में "मुमताज़" वो कामिल कहाँ


तलातुम-लहरों की हलचल, साहिल-किनारा, सदाएं-आवाज़ें, साइल-भिकारी, रूह-आत्मा, ज़हन-मस्तिष्क, बेहिस सी ज़िद-भावना रहित हठ, जज़्बा ए कामिल-सम्पूर्ण भावना

Comments

Popular posts from this blog

ज़ालिम के दिल को भी शाद नहीं करते