कहीं मुझे मिटा न दें ये साअतें क़रार की
खिज़ाँ की रुत गुज़र गई, लो आई रुत बहार
की
कहीं मुझे मिटा न दें ये साअतें क़रार की
हमें हमारे हाफ़िज़े से भी गिले हज़ार हैं
है दिल पे नक्श आज तक मोहब्बत एक बार की
कभी तो हम भी पाएंगे रिहाई दिल की क़ैद से
कहीं तो होंगी ख़त्म भी हुदूद इस हिसार की
झुलस रहा है ज़हन भी, कि जल रही है रूह भी
ज़रा ज़रा सी आंच है अभी भी उस शरार की
जो चल दिए तो चल दिए, पलट के देखते भी क्या
उस एक फ़ैसले पे हम ने ज़िन्दगी निसार की
ज़रा तो कशमकश मिटे, सुना भी दो वो फ़ैसला
झुकी हुई है अब तलक निगाह शर्मसार की
मोहब्बतों का कारवां तो कब का जा चुका मगर
नज़र पे गर्द है जमी अभी तलक ग़ुबार की
दमक रहा है तन बदन, चमक रही है रूह तक
हैं "नाज़ाँ" ये तजल्लियां उसी बुझे शरार की
खिज़ां-पतझड़, साअतें-घड़ियाँ, हाफ़िज़े से-स्मृति
से, गिले-शिकायतें, हुदूद-सीमाएं, हिसार-दायरा, ज़हन-मस्तिष्क, रूह-आत्मा, शरार-अंगारा, शर्मसार-लज्जित, तजल्लियां-झिलमिलाहट
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