Posts

Ham teri bazm men #Mujtaba #Aziz #Naza Childhood Series

Image

Once upon a time in Mumbai

Image

अज़ीज़ नाज़ाँ का अदब और ‎अदीबों के अज़ीज़ नाज़ाँ ‎-मुमताज़ अज़ीज़ नाज़ाँ

यूँ तो क़व्वाली और अदब का रिश्ता बड़ा पुराना और ख़ास है। हज़रत अमीर ख़ुसरो से शुरू करें ‎तो अक्सर बेशतर क़व्वाल ऐसे हुए हैं, जो या तो ख़ुद शायर रहे हैं, या जिन्होंने असातिज़ा के कलाम से ‎अपने फ़न को सजाया है, फिर चाहे वो ग़ज़लें हों, या गिरहबंदी में पेश किए जाने वाले अशआर। लेकिन ‎दौर-ए-जदीद में अक्सर इस रिश्ते को टूटते देखा गया है। पिछले कई बरसों में क़व्वालों ने आमियाना ‎कलाम को इस क़दर तरजीह दी है कि ऐसा लगने लगा है कि क़व्वाली और अदब मक़्नातीस के ‎मुख़ालिफ़ छोरों की तरह हैं, जो मिलना तो दूर, कभी नज़दीक भी नहीं आ सकते। यहाँ तक कि ‎क़व्वालियाँ लिखने वालों की एक जमाअत ही अलग से नज़र आती है, जिनको और कुछ भी कहा जाए, ‎अदीब तो हरगिज़ नहीं कहा जा सकता, क्यूँ कि अक्सर उनके कलाम अदबी तक़ाज़ों से बड़ी बेहयाई से ‎मुंह चुराते रहते हैं। उनका मक़सद सिर्फ़ ऐसा कलाम लिखना ही रहा है, जिससे वो किसी न किसी तरह ‎अवाम के दिल में जगह बना लें, और उन कलामों ने क़व्वालों को भी अवाम का दिल लुभाने का बड़ा ‎आसान सा रास्ता दिखा दिया है। ‎ लेकिन क़व्वाली की दुनिया में कुछ ऐसे भी फ़नकार गुजरे हैं, जो इल्म और फ़न के साथ ही ‎साथ अदब के भी शैदाई

aaina aaj mujh par hansa der tak

Image

Beautiful Ghazal by Aziz Naza Jahan talak bhi ye sehra dikhaai deta hai

Image

छुपाएँ हाल कहाँ तक अज़ाब-ए-बिस्मिल का

  छुपाएँ हाल कहाँ तक अज़ाब-ए-बिस्मिल का अब आ चुका है लबों तक मुआमिला दिल का   छुपाए लाख कोई जुर्म छुप नहीं सकता लहू भी बोलता है आस्तीन-ए-क़ातिल का   तलातुम ऐसा उठा ज़ात के समंदर में कहीं नहीं है कोई भी निशान साहिल का   न क़ैद - ए - इश्क़ , न ज़िंदाँ , न अब है कोई गिरफ़्त पिघल चुका है सब आहन तेरे सलासिल का   जो ज़िद पे आए तो क़िस्मत के बल निकाल दिये जवाब ढूंढ लिया हम ने अपनी मुश्किल का   है रंग रंग की सहबा , हैं ज़र्फ़ ज़र्फ़ के रिंद मुआमिला है अजब यार तेरी महफ़िल का   यही उम्मीद लिए उस के दर पे बैठे हैं कभी तो पूछ ले "मुमताज़" हाल वो दिल का

जहाँ में मुफ़लिसी ही मुफ़लिसी थी

  जहाँ में मुफ़लिसी ही मुफ़लिसी थी ख़ज़ानों में ख़ुदा के क्या कमी थी   फ़ज़ा की तीरगी में खो गई थी इबादत दामन - ए - शब में जो की थी   चमन में खिल उठे थे गुल हज़ारों बहारों ने तेरी आहट सुनी थी   मेरा एहसास पत्थर हो गया था ये किसने दश्त से आवाज़ दी थी   जलाया करती थी मुझको मुसलसल मेरे सीने में कोई आग सी थी   मगर हम फिर भी थे बेज़ार इस से तेरी दुनिया में कितनी दिलकशी थी   ख़िरद की सिर्फ़ ऐयारी न आई जुनूँ था , चाह थी , दीवानगी थी   क़फ़स वालों के लब पर थीं दुआएँ कहीं "मुमताज़" फिर बिजली गिरी थी   मुफ़लिसी – ग़रीबी , तीरगी – अंधेरा , इबादत – पूजा , दामन - ए - शब – रात का आँचल , दश्त – जंगल , मुसलसल – निरंतर , बेज़ार – ऊबे हुए , दिलकशी आकर्षण , ख़िरद – अक़्ल , ऐयारी – मक्कारी , जुनूँ – धुन , दीवानगी – पागलपन , क़फ़स – पिंजरा