यूँ तो क़व्वाली और अदब का रिश्ता बड़ा पुराना और ख़ास है। हज़रत अमीर ख़ुसरो से शुरू करें तो अक्सर बेशतर क़व्वाल ऐसे हुए हैं, जो या तो ख़ुद शायर रहे हैं, या जिन्होंने असातिज़ा के कलाम से अपने फ़न को सजाया है, फिर चाहे वो ग़ज़लें हों, या गिरहबंदी में पेश किए जाने वाले अशआर। लेकिन दौर-ए-जदीद में अक्सर इस रिश्ते को टूटते देखा गया है। पिछले कई बरसों में क़व्वालों ने आमियाना कलाम को इस क़दर तरजीह दी है कि ऐसा लगने लगा है कि क़व्वाली और अदब मक़्नातीस के मुख़ालिफ़ छोरों की तरह हैं, जो मिलना तो दूर, कभी नज़दीक भी नहीं आ सकते। यहाँ तक कि क़व्वालियाँ लिखने वालों की एक जमाअत ही अलग से नज़र आती है, जिनको और कुछ भी कहा जाए, अदीब तो हरगिज़ नहीं कहा जा सकता, क्यूँ कि अक्सर उनके कलाम अदबी तक़ाज़ों से बड़ी बेहयाई से मुंह चुराते रहते हैं। उनका मक़सद सिर्फ़ ऐसा कलाम लिखना ही रहा है, जिससे वो किसी न किसी तरह अवाम के दिल में जगह बना लें, और उन कलामों ने क़व्वालों को भी अवाम का दिल लुभाने का बड़ा आसान सा रास्ता दिखा दिया है।
लेकिन क़व्वाली की दुनिया में कुछ ऐसे भी फ़नकार गुजरे हैं, जो इल्म और फ़न के साथ ही साथ अदब के भी शैदाई रहे हैं। इनमें सफ़-ए-अव्वल में जो नाम आता है, वो है अज़ीज़ नाज़ाँ क़व्वाल का नाम। अज़ीज़ नाज़ाँ में अदब शनासी और शेर फ़हमी की ऐसी सलाहियत मौजूद थी, जो अक्सर अदीबों में भी मिलना मुश्किल है। चाहे जितना भी गहरा और मुश्किल शेर क्यूँ न हो, उसके मफ़हूम की तह तक उन का ज़ेहन पल भर में पहुँच जाता था और वो इतने हस्सास थे, कि हर अच्छे शेर पर तड़प तड़प जाते और हाय हाय कर उठते। शायद यही वजह थी कि अदीबों में भी वो मोअज़्ज़िज़ थे, और उस दौर के तमाम अच्छे शुअरा उन के दोस्त थे और उन कि रिफ़ाक़त में मैं ने भी शेरी भोपाली, नूर लखनवी, मेराज फ़ैज़ाबादी, ज़ुबैर रिज़्वी, वाली आसी, बेकल उत्साही और मुनव्वर राना जैसे न जाने कितने ही शुअरा के साथ बैठ कर उनका कलाम रु-ब-रु सुनने का शर्फ़ हासिल किया है। यही नहीं, उन के दोस्तों में क़तील शिफ़ाई, निदा फ़ाज़ली, वसीम बरेलवी, मख़मूर सईदी, बशीर बद्र और ऐसे ही न जाने कितने नाम शामिल हैं।
शायरों में वो इतने मशहूर थे कि वो जहां भी जाते थे, वहाँ के और लोगों के साथ ही साथ वहाँ के मक़ामी शुअरा भी उन से मिलने के लिए ज़रूर तशरीफ़ लाते थे और अगर मुमकिन होता था तो उनके ऐज़ाज़ में शेरी नशिस्तें भी मुनअक़िद करते थे। इसके अलावा मुंबई (तब का बंबई) में जब भी कोई आलमी मुशायरा होता था, उसके ठीक दूसरे दिन तमाम शुअरा हमारे ग़रीबख़ाने पर जमा हो जाते, और एक ग़ैर ऐलानिया शेरी नशिस्त ख़ुद-ब-ख़ुद अंजाम पा जाती थी। जो ग़ज़ल उनको पसंद आ जाती, उसे अपने प्रोग्रामों में पेश करने में उन्हें ज़रा भी गुरेज़ नहीं होता था। न जाने कितने ही शुअरा की ग़ज़लें उनकी मोसीक़ी का लिबास पहन कर अवाम के सामने आई हैं, और उन में से अक्सर मक़बूल-ए-आम भी रही हैं। "जहां तलक भी ये सेहरा दिखाई देता है" (शकेब ज़लाली), "निगाह-ए-नाज़ के एहसाँ उठाए फिरते हैं" (क़ाबिल अजमेरी), "आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा" (बशीर बद्र), "जब कोई शाम-ए-हसीं नज़्र-ए-ख़राबात हुई" (मख़मूर सईदी), "कभी ख़ुशी से ख़ुशी की तरफ़ नहीं देखा" (मुनव्वर राना), "दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है" (क़ैसर-उल-जाफ़री) जैसी अनगिनत ग़ज़लों को उन्होंने अपनी जादुई आवाज़ से मक़बूल बनाया है।
अदीबों के लिए उनका जुनून ऐसा था, कि कोई शेर पसंद आ जाए तो उस शायर का नाम और पता मालूम कर के उसे ढूंढते हुए उसके मस्कन तक जा पहुँचते थे, और उसका दीवान, अगर हो तो, या उसका कलाम हासिल कर के ही मानते थे। ऐसे दो वाक़यात की गवाह मैं ख़ुद रही हूँ, जब मिदहत-उल-अख़्तर और नूर तक़ी नूर को तलाश करते हुए उनके घर तक तशरीफ़ ले गए थे और उनके दीवान ले कर आए थे।
अदब की पसंदीदगी के मुआमले में उनका मेयार इतना ऊंचा था कि उन्हें मुज़फ़्फ़र वारसी के अलावा किसी और शायर का हम्दिया और नातिया कलाम पसंद ही नहीं आता था। और वो सर-ए-आम इसका ऐलान करते थे। न उस दौर में और न ही आज तक हिंदुस्तान के किसी और क़व्वाल ने मुज़फ़्फ़र वारसी की दक़ीक़ नातों को गाने का जोखम उठाया होगा। लेकिन वो अज़ीज़ नाज़ाँ थे, जिन्होंने न सिर्फ़ उनके कलाम को गाया, बल्कि उसे शोहरत भी दिलाई। उन का अल्बम "सल्ले अला" इस की ज़िन्दा-ओ-जावेद मिसाल है।
उनका हाफ़िज़ा इतना ज़बरदस्त था कि उन्हें हज़ारों अशआर मुंहज़बानी याद थे और गिरह लगाने का ऐसा फ़न उन्हें मिला था, जो अपनी मिसाल आप था। क्या मजाल थी कि किसी शेर में बेमौज़ूँ गिरह लग जाए और अपने इस हुनर के बारे में उनका कहना था, "मैं शेर की तस्वीर पेश करता हूँ।" और ये बात सच थी। चाहे जितना भी दक़ीक़ शेर हो, उनके पेश करने का तरीक़ा इतना पुरअसर होता था कि न समझने वाले भी समझ कर वाह करने पर मजबूर हो जाते थे।
अक्सर वो कई शुअरा के अशआर को तब्दील भी कर लिया करते थे और हक़ीक़त तो ये है कि उनके इस हेर-फेर से शेर का हुस्न निखर जाता था। शायद यही वजह थी कि शुअरा उनकी इस आदत को भी बर्दाश्त कर जाते थे। कई बार धुन बनाते वक़्त उनसे मिसरा मौज़ूँ हो जाया करता था, जिस पर वो ग़ज़ल कहला लेते थे। मेराज फ़ैज़ाबादी ने ऐसे ही उनके लिए एक ग़ज़ल कही थी, जिसका मतला था-
तेरे बारे में जब सोचा नहीं था
मैं तन्हा था मगर इतना नहीं था
कभी कभी वो ख़ुद भी शेर कह लिया करते थे। उनके कई अशआर अवाम के बीच बहुत मक़बूल भी हुए। वो शकेब ज़लाली की एक ग़ज़ल गाया करते थे, जिसका मतला था-
जहां तलक भी ये सेहरा दिखाई देता है
मेरी तरह से अकेला दिखाई देता है
ये ग़ज़ल काफी मशहूर हुई थी, लेकिन इससे भी ज़ियादा मशहूर वो शेर हुआ था, जो इसी ग़ज़ल में उन्होंने कहा था, और वो शेर ये था-
ये किस मक़ाम पे लाया मेरा जुनूँ मुझको
जहाँ से अर्श भी नीचा दिखाई देता है
जिस वक़्त वो गिरह लगा कर ये शेर पढ़ते थे, अवाम पागल हो जाता था।
उनके ज़ाती कुतुबख़ाने में हज़ारों शेरी मजमूए शामिल थे, जिनसे मैं ने भी काफी इस्तेफ़ादा हासिल किया है। इसमें बहुत सी नायाब किताबें और रिसाइल शामिल थे। "फ़ुनून", "नुक़ूश" वग़ैरह रिसाइल वो पाकिस्तान से मंगाते थे, तो "शायर", "इंशा", "क़रतास" वग़ैरह कई रिसाइल हिंदोस्तान के मुख़्तलिफ़ गोशों से उनके पास आया करते थे। पाकिस्तान में उनके कई दोस्त थे, जिनमें मुज़फ़्फ़र वारसी, मेहदी हसन और ग़ुलाम अली जैसी हस्तियाँ भी शामिल थीं और आम लोग भी। तो ज़ाहिर है कि हर माह उनके दोस्तों का या उनके दोस्तों के दोस्तों का हिंदोस्तान आना होता ही रहता था और ऐसा हर आने वाला उनके लिए किताबों की एक खेप ले कर ही आता था। इस तरह हर महीने 40-50 किताबें पाकिस्तान से उनके पास आया करती थीं।
उनकी सख़ावत के बारे में तो हर कोई जानता ही है, लेकिन ये बात कम लोगों को पता होगी कि वो मदद करते वक़्त सामने वाले की अना को मजरूह नहीं होने देते थे। कभी कभी वो बराह-ए-रास्त भी मदद करते थे, जैसे किसी शायर के दीवान की कई कापियाँ खरीद लीं, या किसी को कोई ऐसा सामान तोहफ़तन पेश कर दिया जिस की उसको हक़ीक़तन ज़रूरत होती थी। अब किसी और की ज़रूरत उनको बिना कहे कैसे मालूम हो जाती थी, ये एक ऐसा मोअम्मा है, जिसे मैं आज तक हल नहीं कर सकी हूँ।
अपनी गाई हुई कई ग़ज़लें उन्होंने रेकॉर्ड भी कराई हैं, लेकिन वो इतनी कम हैं कि उनकी तादाद डाल में नमक के बराबर है। बहुत सी ऐसी ग़ज़लें हैं, जो स्टेज पर बहुत मक़बूल हुईं, लेकिन जिनको वो रेकॉर्ड नहीं करा सके। इसी वजह से बाद में एचएमवी से, जो अब सरेगामा इंडिया लिमिटेड हो गई है, उनका झगड़ा हुआ, और वो वीनस रेकॉर्ड्स एंड टेप्स से जुड़ गए। उनकी और वीनस की इस जुगलबंदी ने कई नायाब अल्बम अवाम के बीच पेश किए, जिनके नाम हैं- "हंगामा", "शान-ए-ख़्वाजा", "सल्ले अला" और "मैं नशे में हूँ" जिस में एक गीत के अलावा बाक़ी सब आइटम्स ग़ज़लें ही थीं और अगर ज़िंदगी मोहलत देती तो शायद कई और नायाब अल्बम अभी और मंज़र-ए-आम पर आते।
उनके स्टेज प्रोग्रामों की कुछ रिकॉर्डिंग्स मौजूद हैं, जिनमें उनकी गाई हुई ग़ज़लें भी हैं और वो जिन जिन लोगों के पास हैं, वो उन्हें तबर्रुक की तरह संभाले हुए हैं।
और हक़ीक़त तो ये है कि अज़ीज़ नाज़ाँ ब-ज़ात-ए-ख़ुद एक तबर्रुक थे, संगीत और अदब की दुनिया के लिए......।
अदब – साहित्य, बेशतर – अधिकांश, असातिज़ा – गुरुजन, फ़न – कला, अशआर – शेर का बहुवचन, दौर-ए-जदीद – आधुनिक दौर, आमियाना – सस्ता, तरजीह – प्राथमिकता, मक़्नातीस – चुंबक, मुख़ालिफ़ – विरोधी, जमाअत – समूह, अदीब – साहित्यकार, अवाम – आम लोग, शैदाई – चाहने वाला, सफ़-ए-अव्वल – पहली पंक्ति, अदब शनासी – साहित्य को पहचानना, शेर फ़हमी – शेर को समझना, सलाहियत – योग्यता, मफ़हूम – भावार्थ, ज़ेहन – मस्तिष्क, हस्सास – भावुक, मोअज़्ज़िज़ – सम्माननीय, शुअरा – शायर का बहुवचन, रिफ़ाक़त – साथ, रु-ब-रु – आमने सामने, शर्फ़ – सौभाग्य, मक़ामी स्थानीय, ऐज़ाज़ – सम्मान, शेरी नशिस्तें काव्य गोष्ठियाँ, मुनअक़िद – आयोजित, आलमी मुशायरा – बहुत बड़ा मुशायरा (राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर का), ग़ैर ऐलानिया – अघोषित, ख़ुद-ब-ख़ुद – अपने आप, मोसीक़ी – संगीत, मस्कन – निवास स्थान, मेयार – स्तर, हम्दिया – ख़ुदा की तारीफ़ में, नातिया – नबी की तारीफ़ में, दक़ीक़ – क्लिष्ट, ज़िन्दा-ओ-जावेद – जीता जागता, हाफ़िज़ा – स्मृति, बेमौज़ूँ -विषय से हट कर, पुरअसर – प्रभावशाली, ज़ाती – निजी, कुतुबख़ाना – पुस्तकालय, शेरी मजमूए – कविता संग्रह, इस्तेफ़ादा हासिल किया – लाभ उठाया, नायाब – दुर्लभ, रिसाइल पत्रिकाएँ, मुख़्तलिफ़ – विभिन्न, गोशों – कोनों, सख़ावत – दानशीलता, अना – स्वाभिमान, मजरूह – घायल, बराह-ए-रास्त – सीधे सीधे, तोहफ़तन – तोहफे के तौर पर, हक़ीक़तन – सच में, मोअम्मा – पहेली, तबर्रुक – प्रसाद।
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