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जंग जब तूफ़ाँ से हो तो क्या किनारा देखना

जंग जब तूफ़ाँ से हो तो क्या किनारा देखना बैठ कर साहिल पे क्या दरिया का धारा देखना   माँगते हैं ख़ैर तेरी सल्तनत में रात दिन देखना , बस इक नज़र ये भी ख़ुदारा देखना   ये तुम्हारा क़हर तुम को ही न ले डूबे कहीं तुम ज़रा अपने मुक़द्दर का इशारा देखना   क्या बताएँ , किस क़दर दिल पर गुज़रता है गरां बार बार इन हसरतों को पारा पारा देखना   हौसलों को भी सहारा हो किसी उम्मीद का ऐ नुजूमी मेरी क़िस्मत का सितारा देखना   बारहा “मुमताज़” नम कर जाता है आँखें मेरी मुड़ के हसरत से हमें उसका दोबारा देखना     ख़ुदारा – ख़ुदा के लिए , क़हर – बहुत तेज़ ग़ुस्सा , गरां – भारी , पारा पारा – टुकड़े टुकड़े , नुजूमी – ज्योतिषी

तरब का पर्दा भी आख़िर इसे बचा न सका

तरब का पर्दा भी आख़िर इसे बचा न सका चिराग़ बुझने से पहले भी लपलपा न सका   हज़ार वार किए जम के रूह को कुचला ज़माना हस्ती को मेरी मगर मिटा न सका   सितम शआर ज़माने का ज़ब्त टूट गया जो मेरे ज़ब्त की गहराइयों को पा न सका   जता जता के जो एहसान दोस्तों ने किए मेरा ज़मीर ये बार-ए-गरां उठा न सका   जहाँ जुनून मेरा मुझ को खेंच लाया है वहाँ तलक तो तसव्वर भी तेरा जा न सका   क़लम भी हार गया , लफ़्ज़ साथ छोड़ गए तेरा वजूद किसी दायरे में आ न सका   छुपा के दिल की कदूरत गले मिलें “मुमताज़” हमें हुनर ये अदाकारियों का आ न सका   तरब – ख़ुशी , सितम शआर – जिसका चलन सितम करना हो , बार-ए-गरां – भारी बोझ , जुनून – सनक , तसव्वर – कल्पना , कदूरत – मैल , अदाकारी – अभिनय

किस को थी मालूम उस नायाब गौहर की तड़प

किस को थी मालूम उस नायाब गौहर की तड़प एक क़तरे में निहाँ थी दीदा-ए-तर की तड़प   फ़र्त-ए-हसरत से छलकते आबगीने छोड़ कर कोई निकला था सफ़र पर ले के घर भर की तड़प   भूक बच्चों की , दवा वालिद की , माँ की बेबसी कू ब कू फिरने लगी है आज इक घर की तड़प   ढह न जाए फिर कहीं ये मेरी हस्ती का खंडर कैसे मैं बाहर निकालूँ अपने अंदर की तड़प   कब छुपे हैं ढाँप कर भी ज़ख़्म तपती रूह के दाग़ करते हैं बयाँ इस तन के चादर की तड़प   ज़ब्त ने तुग़ियानियों का हर सितम हँस कर सहा साहिलों पर सर पटकती है समंदर की तड़प   आरज़ू , सहरा नवर्दी , ज़ख़्म , आँसू , बेबसी हासिल-ए-दीवानगी है ज़िन्दगी भर की तड़प   ये हमारी मात पर भी कितना बेआराम है देख ली “ मुमताज़ जी” हम ने मुक़द्दर की तड़प   नायाब – दुर्लभ , गौहर – मोती , क़तरे में – बूँद में , निहाँ – छुपी हुई , दीदा-ए-तर – आँसू भरी आँख , फ़र्त-ए-हसरत – बहुलता , आबगीने – ग्लास , वालिद – बाप , कू ब कू – गली गली , तुग़ियानियों लहरों की हलचल , साहिल – किनारा , आरज़ू – इच्छा , सहरा नवर्दी – मरुस्थल में भटकना , हासिल-ए-दीवानगी – पागलपन

Mumtaz_Aziz_Naza_interview_artists #NGO #Aziz Naza #

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Hands of Humanity_Covid19 - Ek Sawaal_(How to Fight Corona)

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नई उम्र की नई फ़सल

फेसबुक ने हमारे समाज का क्या भला किया या क्या बुरा किया , यह अलग विषय है लेकिन फेसबुक ने हर किसी को अपने विचारों को दुनिया के सामने रखने का एक प्लेटफॉर्म ज़रूर दिया है , इसमें कोई शक नहीं और आज फेसबुक की मेहरबानी से हमारे साहित्य जगत में लेखकों की एक पूरी पौध पक कर तैयार हो गई है। ऐसा कोई ज़रूरी नहीं है कि फेसबुक पर अपने विचार व्यक्त करने वाला हर लेखक अच्छा ही हो। उन में से कुछ वाकई बहुत बुरे हैं , जिन्हें लेखन तो क्या , भाषा और व्याकरण का भी ज्ञान नहीं है। लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं है कि फेसबुक ने हमारे साहित्य जगत को कुछ वाकई बहुत ही अच्छे और सक्षम लेखकों का नज़राना भी दिया है , जिनकी लेखनी में निर्भीकता और विचारों में दम है। नई पौध के इन्हीं लेखकों में से एक नाम अशफ़ाक़ अहमद का भी है , जो युवा हैं , जिनकी लेखनी में भरपूर रवानी है , विचारों में नयापन है और जिनकी नज़रों में समाज की हर समस्या को एक नए नज़रिये से देखने की रौशनी भी है। हाल ही में उनकी कहानियों का संग्रह "गिद्धभोज" मैं ने पढ़ा , और इसमें कोई दोराय नहीं कि मैं इन कहानियों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी।

किस को समझाएँ यहाँ हम दिल-ए-रंजूर की बात

किस को समझाएँ यहाँ हम दिल-ए-रंजूर की बात बुझते बुझते जो जला उस मह-ए-बे नूर की बात کس کو سمجھائیں یہاں ہم دلِ رنجور کی بات بجھتے بجھتے جو جلا اُس مہِ بے نور کی بات             जल न जाएँ कहीं जलवे की तपिश से आँखें ताब-ए-नज़्ज़ारा अगर हो तो करो तूर की बात جل نہ جائیں کہیں جلوے کی تپش سے آنکھیں تابِ نظارہ اگر ہو تو کرو طور کی بات आरज़ू मचली , तबीयत पे ख़ुमार आने लगा छेड़ दी किस ने सरापा मए-भरपूर की बात آرزو مچلی، طبیئت پہ خمار آنے لگا چھیڑ دی کس نے سراپا مئے بھرپور کی بات ले के शहवत की अजब एक चमक आँखों में शेख़ जी करते रहे देर तलक हूर की बात لے کے شہوت کی اجب ایک چمک آنکھوں مین شیخ جی کرتے رہے دیر تلک حور کی بات दार शरमाया , पशेमान हुआ दीन-ए-हक़ फिर अनल हक़ से अदा हो गई मंसूर की बात دار شرمایا، پشیمان ہوا دینِ حق پھر انا الحق سے ادا ہو گئی منصور کی بات मुंतज़िर लम्हों की वुस ' अत की न पूछो "मुमताज़" रात की बात भी लगती है बहुत दूर की बात منتظر لمحوں کی وسعت کی نہ پوچھو ممتازؔ رات کی بات بھی لگتی ہے بہت دور کی بات दिल-ए-रंजूर