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है गराँ एक इक सवाल हमें

है गराँ एक इक सवाल हमें सिर्फ वादों प अब न टाल हमें फ़ैसला कुछ तो ज़िंदगानी का इस कशाकश से अब निकाल हमें मार डालें न ग़म ज़माने के ऐ ग़म-ए-आशिक़ी संभाल हमें इस लिए गुम हैं हम भी माज़ी में रास आया कभी न हाल हमें यूँ बिखरते रहे हैं हम पैहम हर तबाही का है मलाल हमें सीख पाए न इक तसन्नोअ हम यूँ तो आते हैं सब कमाल हमें हम हैं गोया कि रास्ता कोई वक़्त करता है पायमाल हमें तसन्नोअ – बनावट

पछता रहे हैं काम से उस को निकाल के

पछता रहे हैं काम से उस को निकाल के खाएँगे कितने दिन यूँ ही अंडे उबाल के तिरसठ बरस की सिन में तमन्ना है हूर की जुम्मन मियाँ को शौक़ हुए हैं कमाल के पतली गली से जल्द खिसक लो तो ख़ैर है   रक्खा है क़र्ज़ख़्वाहों को वादों प टाल के मुश्टंडे चार हम ने बुला रक्खे हैं कि अब जूते बना के पहनेंगे आशिक़ की खाल के ख़ाविंद खट रहा है शब-ओ-रोज़ काम में बेगम मज़े उड़ाती है शौहर के माल के फिर भी न बदनज़र से बचा हुस्न कार का लटकन कई लगाए थे घोड़े की नाल के “ मुमताज़ ” राह-ए-इश्क़ की मजबूरियाँ न पूछ परखच्चे उड़ गए हैं मियाँ बाल बाल के

एक क़तआ

मेरी ज़िद मुझ को मेरा ज़ख़्म-ए-दिल सीने नहीं देती अना की आज़माइश अश्क भी पीने नहीं देती अजब आलम है , दिल का रेज़ा रेज़ा डूबा जाता है ये उलझन और ये बेचैनी मुझे जीने नहीं देती

ऐसे मरकज़ प है ख़ूँख़्वारी अब इन्सानों की

ऐसे मरकज़ प है ख़ूँख़्वारी अब इन्सानों की अब भला क्या है ज़रूरत यहाँ शैतानों की बेड़ियाँ चीख़ उठीं यूँ कि जुनूँ जाग उठा हिल गईं आज तो दीवारें भी ज़िंदानों की उन निगाहों की शरारत का ख़ुदा हाफ़िज़ है लूट लें झुक के ज़रा आबरू मैख़ानों की हम ने घबरा के जो आबाद किया है इन को आज रौनक़ है सिवा देख लो वीरानों की ख़ून से लिक्खी गई है ये मोहब्बत की किताब कितनी दिलचस्प इबारत है इन अफ़सानों की अपनी क़िस्मत का भरम रखने को हम तो “ मुमताज़ ” लाश काँधों पे लिए फिरते हैं अरमानों की

ज़मीन-ए-दिल को कब से धो रही है

ज़मीन-ए-दिल को कब से धो रही है मोहब्बत चुपके चुपके रो रही है तमन्ना की ज़मीं पर लम्हा लम्हा नज़र शबनम की फ़सलें बो रही है ये दिल माने न माने , सच है लेकिन हमें उस की तमन्ना तो रही है हमें ख़ुद में ही भटकाए मुसलसल हमेशा जुस्तजू सी जो रही है यहाँ बस इक वही रहता है कब से नज़र ये बोझ अब तक ढो रही है हमें जो ले के आई थी यहाँ तक वो तन्हा राह भी अब खो रही है न जाने कब यक़ीं आएगा उस को अभी तक आज़माइश हो रही है गिला “ मुमताज़ ” दुनिया से करें क्या कि क़िस्मत ही हमारी सो रही है

करो कुछ तो हँसने हँसाने की बातें

करो कुछ तो हँसने हँसाने की बातें बहुत हो गईं दिल दुखाने की बातें वो करते रहे ज़ुल्म ढाने की बातें वो तीर-ए-नज़र , वो निशाने की बातें ज़माना तो जीने भी देगा न हम को कहाँ तक सुनोगे ज़माने की बातें हटाओ भी , क्या ले के बैठे हो जानम ये खोने के शिकवे , ये पाने की बातें ये ताने , ये तिश्ने , ये शिकवे , ये नाले ये करते हो क्यूँ दिल जलाने की बातें यहाँ कौन देता है जाँ किस की ख़ातिर किताबी हैं ये जाँ लुटाने की बातें चलो छोड़ो “ मुमताज़ ” अब मान जाओ भुला दो ये सारी भुलाने की बातें

अगर नालाँ हो हम से, जा रहो ग़ैरों के साए में

अगर नालाँ हो हम से , जा रहो ग़ैरों के साए में भला रक्खा ही क्या है रोज़ की इस हाय हाए में नहीं बदला अगर तो रंग इस दिल का नहीं बदला मुसाफ़िर आते जाते ही रहे दिल की सराए में बिल आख़िर बेहिसी ने डाल दीं जज़्बों पे ज़ंजीरें न कोई फ़र्क़ अब बाक़ी रहा अपने पराए में हज़ारों बार दाम-ए-आरज़ू से खेंच कर लाए प अक्सर आ ही जाता है ये दिल तेरे सिखाए में मयस्सर है हमें हर बेशक़ीमत शय मगर यारो कहाँ वो लुत्फ़ जो था गाँव की अदरक की चाए में जहाँ से छुप छुपा कर आ बसे हैं हम यहाँ जानाँ दो आलम की पनाहें हैं तेरी पलकों के साए में निबाहें किस तरह “ मुमताज़ ” हम इस शहर-ए-हसरत में हज़ारों ख़्वाहिशें बस्ती हैं उल्फ़त के बसाए में