अगर नालाँ हो हम से, जा रहो ग़ैरों के साए में
अगर नालाँ हो हम से, जा रहो ग़ैरों के साए में
भला रक्खा ही क्या है रोज़ की इस हाय हाए में
नहीं बदला अगर तो रंग इस दिल का नहीं बदला
मुसाफ़िर आते जाते ही रहे दिल की सराए में
बिल आख़िर बेहिसी ने डाल दीं जज़्बों पे ज़ंजीरें
न कोई फ़र्क़ अब बाक़ी रहा अपने पराए में
हज़ारों बार दाम-ए-आरज़ू से खेंच कर लाए
प अक्सर आ ही जाता है ये दिल तेरे सिखाए में
मयस्सर है हमें हर बेशक़ीमत शय मगर यारो
कहाँ वो लुत्फ़ जो था गाँव की अदरक की चाए में
जहाँ से छुप छुपा कर आ बसे हैं हम यहाँ जानाँ
दो आलम की पनाहें हैं तेरी पलकों के साए में
निबाहें किस तरह “मुमताज़” हम इस शहर-ए-हसरत में
हज़ारों ख़्वाहिशें बस्ती हैं उल्फ़त के बसाए में
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