मुझ में क्या तेरे तसव्वर के सिवा रह जाएगा
मुझ में क्या तेरे तसव्वर के सिवा रह जाएगा सर्द सा इक रंग फैला जा ब जा रह जाएगा कर तो लूँ तर्क-ए-मोहब्बत लेकिन उस के बाद भी कुछ अधूरी ख़्वाहिशों का सिलसिला रह जाएगा कारवाँ तो खो भी जाएगा ग़ुबार-ए-राह में दूर तक फैला हुआ इक रास्ता रह जाएगा टूट जाएँगी उम्मीदें , पस्त होंगे हौसले एक तन्हा आदमी बे दस्त-ओ-पा रह जाएगा मैं अगर अपनी ख़मोशी को अता कर दूँ ज़ुबाँ हैरतों के दायरों में तू घिरा रह जाएगा रुत भी बदलेगी , बहारें आ भी जाएँगी मगर इस ख़िज़ाँ का राज़ चेहरे पर लिखा रह जाएगा हाफ़िज़े से नक़्श यूँ ही मिटते जाएँगे अगर दूर तक आँखों में इक दश्त-ए-बला रह जाएगा अपना सब कुछ खो के पाया है तुझे “ मुमताज़ ” ने खो गया तू भी तो मेरे पास क्या रह जाएगा