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आज फिर ख़ुद को समेटूँ सोच को परवाज़ दूँ

आज फिर ख़ुद को समेटूँ सोच को परवाज़ दूँ ज़िन्दगी को मोसीक़ी दूँ फिर नया इक साज़ दूँ आज फिर आज़ाद कर दूँ अपनी हर तख़ईल को और तसव्वर के सफ़र को इक नया आग़ाज़ दूँ हर तड़प के साथ आ जाए ये आलम रक़्स में दिल के टुकड़ों को तड़पने का नया अंदाज़ दूँ अपनी हस्ती को जफ़ाओं पर तेरी कर दूँ निसार आ , कि तेरी बेरुख़ी को और भी ऐज़ाज़ दूँ तू कि ऐ मग़रूर फिर राहों पे अपनी गामज़न मैं कि ख़्वाबों के भँवर से फिर तुझे आवाज़ दूँ हर इरादा , हर तमन्ना , हर ख़ुशी तो लुट चुकी क्या तेरी ख़ातिर करूँ मैं , क्या तुझे “ मुमताज़ ” दूँ मोसीक़ी – संगीत , तख़ईल – विचार शीलता , तसव्वर – कल्पना , आग़ाज़ – शुरुआत , आलम – ब्रह्माण्ड , रक़्स – नाच , जफ़ा – बेरुख़ी , निसार – निछावर , ऐज़ाज़ – सम्मान , मग़रूर – घमंडी , गामज़न – चलना 

सर-ए-महफ़िल सितम का तेरे चर्चा कर दिया होता

सर-ए-महफ़िल सितम का तेरे चर्चा कर दिया होता मेरी दीवानगी ने तुझ को रुसवा कर दिया होता इसी दिल की लगी से राख दुनिया हो गई होती इसी दिल की लगी ने हश्र बरपा कर दिया होता गुज़र कर दर्द हद से कुछ तो हल्का हो गया होता तुम्हारी बेरुख़ी ने दिल का चारा कर दिया होता है एहसाँ हम ने आँखों में संभाला है इन्हें वर्ना समंदर को मेरे अश्कों को क़तरा कर दिया होता निकालने को तो इक ये आरज़ू मेरी निकल जाती तमन्नाओं ने फिर दुश्वार जीना कर दिया होता ख़ुशी से मर भी हम जाते , ख़ुशी में जी भी हम उठते तुम्हारी इक नज़र ने गर इशारा कर दिया होता समाई थी जो वो “ मुमताज़ ” सारी उम्र इक शब में उसी इक रात ने फिर मुझ को तन्हा कर दिया होता चारा – इलाज , क़तरा – बूंद 

मैं...

मैं मुमताज़ हूँ। मैं एक लेखिका , गायिका और पेंटर हूँ। हालाँकि गायकी अब मैं ने छोड़ दी है लेकिन लेखन और पेंटिंग मेरा जुनून हैं , जिन्हें हासिल करने के लिए मैं ने क्या क्या संघर्ष नहीं किया। कितनी ही बार क़लम मेरे हाथ से छूटा होगा , कितनी ही बार मेरे ख़याल मुझ से रूठे होंगे और कितनी ही बार मेरे ब्रुश मुझे अलविदा कह गए होंगे , और जब जब मेरी रचनात्मकता मुझ से रूठ गई , मेरा दम घुटने लगा और मैं उसे मनाने में जुट गई। ज़िन्दगी की राहें मेरे लिए कभी भी आसान नहीं थीं। जाने कितने पेच-ओ-ख़म थे इन राहों में , कैसे कैसे उतार चढ़ाव थे। ऐसा नहीं कि मेरी हिम्मत कभी टूटी नहीं , हिम्मत भी टूटी , बार बार इरादे भी कमजोर हुए लेकिन मेरे तख़्लीक़ी ज़हन ने मुझे ख़ुद को समेटने की और फिर उठ खड़ा होने की ताक़त दी। एक बात और बताऊँ ? कभी किसी बच्चे को देखना , कितना बेफ़िक्र , आत्मविश्वास से कैसा भरा हुआ। दुनिया की हर चीज़ को हैरत से देखता है , सब कुछ जानना चाहता है। छोटी छोटी बातों पर ख़ुश हो जाता है , अपनी हर ख़्वाहिश को पूरा कर के ही दम लेता है। हम सब जब अपनी ज़िन्दगी का सफ़र शुरू करते हैं तो हम वो बच्चा ही तो होते ह

मेरा जुनून ग़म-ओ-रंज-ओ-आह से आगे

मेरा जुनून ग़म-ओ-रंज-ओ-आह से आगे तेरा जमाल हुदूद-ए-निगाह से आगे कहाँ कहाँ न मेरी बेख़ुदी तलाश आई कोई मिला न तेरी जल्वागाह से आगे सितम हर एक तेरा हमने सर आँखों पे रखा वफ़ा निबाही है हम ने निबाह से आगे तेरे करम की हदें हद्द-ए-तसव्वर से वसीअ मेरी ख़ताएँ कि हद्द-ए-गुनाह से आगे जो इश्क़ ढूँढने निकला तुझे तसव्वर में ख़याल पहुँचा मेरा तेरी राह से आगे ये किस मक़ाम पे लाई है आशिक़ी मुझ को मेरा वजूद है अब मेहर-ओ-माह से आगे जहाँ न दर्द , न मातम , न गुमरही , न सुकूँ मेरी तलाश की हद है निगाह से आगे अब अर्श तक न पहुँच जाए इसकी आँच कहीं ख़लिश ये दिल की जो पहुँची है आह से आगे न रोक पाएगी अब मुझ को तो सदा भी तेरी निकल गई हूँ मैं हर रस्म-ओ-राह से आगे उतर गई थी जो “ मुमताज़ ” दिल के पार निगाह कि ज़ख़्म-ए-दिल की तपक है कराह से आगे 

अब राह क्या है देखनी लैल-ओ-निहार की

अब राह क्या है देखनी लैल-ओ-निहार की अबके तो जंग करनी है बस आरपार की शो ’ ले तो बुझ गए हैं मगर आँच है अभी दिल में जलन है बाक़ी अभी उस शरार की चारा न गर हो कोई तो इसको मिटा ही दे कोई दवा तो कर दे दिल-ए-बेक़रार की सीने में ज़ख़्म खिलने लगे हैं कहीं कहीं आहट सुनाई देती है फ़स्ल-ए-बहार की कब का वो कारवाँ तो रवाँ हो चुका मगर आँखों पे धूल छाई है अब तक ग़ुबार की नश्शे की बेख़ुदी में ख़ुदी को मिटा दिया क़ीमत भी हम ने ख़ूब चुकाई ख़ुमार की आ ही गया है वक़्त भी शायद हयात का देखी है हम ने ख़्वाब में तस्वीर दार की “ मुमताज़ ” टुकड़े दिल के संभालो , बिखर न जाए दिल में जो बस गई है वो तस्वीर यार की लैल-ओ-निहार – रात और दिन , शरार – अंगारा , चारा – इलाज , बेख़ुदी – बेहोशी , ख़ुमार – नशा , हयात – ज़िन्दगी , दार – मृत्युदंड देने की जगह 

फ़ैसला लो, सुना दिया मैं ने

फ़ैसला लो , सुना दिया मैं ने नक़्श दिल से मिटा दिया मैं ने तुम को दरकार इक खिलौना था शीशा-ए-दिल थमा दिया मैं ने अपने हाथों की सब लकीरों को रफ़्ता रफ़्ता मिटा दिया मैं ने अपने पैकर से रंग चुन चुन कर सारा गुलशन सजा दिया मैं ने ज़िन्दगी , इतनी मेहरबाँ क्यूँ है तेरा हरजाना क्या दिया मैं ने वक़्त की नज़्र हो गईं यादें एक ख़त था , जला दिया मैं ने देखा “ मुमताज़ ” मैं ने मिट कर भी और फिर सब भुला दिया मैं ने नक़्श – निशान , रफ़्ता रफ़्ता – धीरे धीरे , पैकर – जिस्म , नज़्र – हवाले 

दिल के ज़ख़्मों के भी ग़ालीचे बिछाए जाएँ

दिल के ज़ख़्मों के भी ग़ालीचे बिछाए जाएँ ख़ैर मक़दम के नए तौर बनाए जाएँ अपनी ख़ुद्दारी को मंज़ूर नहीं है वरना हम जो चाहें तो सितारों पे बुलाए जाएँ अब अगर तर्क-ए-तअल्लुक़ हो तो फिर ऐसा हो दोस्ती के भी न आदाब निभाए जाएँ तल्ख़ सच्चाई से एहसास का दम घुटता है आओ ख़्वाबों से दर-ओ-बाम सजाए जाएँ हम मयस्सर हैं तुम्हें , मानो हमारा एहसाँ वरना हम दुनिया-ए-फ़ानी में न पाए जाएँ आप अब ऐसे भी ज़ख़्मों का मदावा ढूँढें मल के ज़ख़्मों पे नमक दर्द मिटाए जाएँ है सितम फ़र्ज़ जो तुम पर तो फिर इस तरह करो ख़ाक हो जाएँ हम ऐसे तो सताए जाएँ हम भी “ मुमताज़ ” कुछ ऐसे तो गए गुज़रे नहीं कि तेरे दर पे यूँ ही उम्र बिताए जाएँ ख़ैरमक़दम – स्वागत , तर्क-ए-तअल्लुक़ – रिश्ता तोड़ देना , आदाब – औपचारिकता , दर-ओ-बाम – दरवाज़े और छत , मयस्सर – हासिल , फ़ानी – नश्वर , मदावा – इलाज