अब राह क्या है देखनी लैल-ओ-निहार की
अब
राह क्या है देखनी लैल-ओ-निहार की
अबके
तो जंग करनी है बस आरपार की
शो’ले तो बुझ गए हैं मगर
आँच है अभी
दिल
में जलन है बाक़ी अभी उस शरार की
चारा
न गर हो कोई तो इसको मिटा ही दे
कोई
दवा तो कर दे दिल-ए-बेक़रार की
सीने
में ज़ख़्म खिलने लगे हैं कहीं कहीं
आहट
सुनाई देती है फ़स्ल-ए-बहार की
कब
का वो कारवाँ तो रवाँ हो चुका मगर
आँखों
पे धूल छाई है अब तक ग़ुबार की
नश्शे
की बेख़ुदी में ख़ुदी को मिटा दिया
क़ीमत
भी हम ने ख़ूब चुकाई ख़ुमार की
आ
ही गया है वक़्त भी शायद हयात का
देखी
है हम ने ख़्वाब में तस्वीर दार की
“मुमताज़” टुकड़े दिल के संभालो,
बिखर न जाए
दिल
में जो बस गई है वो तस्वीर यार की
लैल-ओ-निहार
–
रात और दिन, शरार – अंगारा, चारा – इलाज, बेख़ुदी – बेहोशी, ख़ुमार – नशा, हयात – ज़िन्दगी, दार – मृत्युदंड देने की जगह
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