तरही ग़ज़ल - अब भी एहसास कोई ख़्वाबज़दा है मुझ में
अब भी एहसास कोई ख़्वाबज़दा है मुझ में कब से मैं ढूँढ रही हूँ के ये क्या है मुझ में मुन्तज़िर कब से ये ख़ामोश ख़ला है मुझ में कोई दर है जो बड़ी देर से वा है मुझ में इक ज़रा चोट लगेगी तो उबल उट्ठेगा एक मुद्दत से तलातुम ये रुका है मुझ में फिर से फैला है मेरे दिल में अजब सा ये सुकूत फिर से तूफ़ान कोई जाग रहा है मुझ में कोई आहट है के दस्तक है के फ़रियाद कोई कैसा ये शोर सा है , कुछ तो बचा है मुझ में ये चमक जो मेरे शे'रों में नज़र आती है गर्द आलूद सितारा है, दबा है मुझ में कितना कमज़ोर है ये चार अनासिर का मकान "आग है , पानी है , मिट्टी है , हवा है मुझ में" जब भी मैं उतरी हूँ ख़ुद में तो गोहर लाई हूँ इक ख़ज़ाना है जो 'मुमताज़' दबा है मुझ में ab bhi ehsaas koi khwaabzadaa hai mujh meN kab se maiN dhoond rahi hoon ke ye kya hai mujh meN muntazir kab se ye khaamosh khalaa hai mujh meN koi dar hai jo badi der se waa hai