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हर आरज़ू को लूट लिया ऐतबार ने

हर     आरज़ू     को     लूट   लिया   ऐतबार   ने पहुँचा   दिया   कहाँ   ये   वफ़ा   के   ख़ुमार   ने मुरझाए   गुल ,   तो   ज़ख़्म   खिलाए   बहार ने "दहका   दिया   है   रंग-ए-चमन   लालाज़ार   ने" पलकों में भीगा प्यार भी हम को न दिख सका आँखों   को   ऐसे   ढाँप   लिया   था   ग़ुबार   ने क्या   दर्द   है   ज़ियादा   जो   रोया   तू   फूट कर पूछा   है   आबलों   से   तड़प   कर   ये   ख़ार   ने किरदार     आब   आब     शिकारी   का     हो   गया कैसी     नज़र     से   देख   लिया   है   शिकार   ने गोशों   में   रौशनी   ने       कहाँ   दी   हैं   दस्तकें "मुमताज़"   तीरगी   भी    ...

आँखों में क्या राज़ छुपा था

आँखों में क्या राज़ छुपा था कुछ तो उस ने यार कहा था टूटे फूटे राज़ थे दिल में और भला क्या इस के सिवा था ज़हन की भीगी भीगी ज़मीं पर यादों का इक शहर बसा था उजड़ी हुई दिल की वादी में कौन ये हर पल नग़्मासरा था सारी फ़सीलें टूट गई थीं कैसा अजब तूफ़ान उठा था बदली थीं बस वक़्त की नज़रें साया भी हम को छोड़ गया था यादों के वीरान नगर में दूर तलक बस एक ख़ला था दिल में कोई हसरत ही न होती ये भी क्या "मुमताज़" बुरा था

ऐसे मरकज़ प है ख़ूँख़्वारी अब इन्सानों की

ऐसे मरकज़ प है ख़ूँख़्वारी अब इन्सानों की अब भला क्या है ज़रूरत यहाँ शैतानों की बेड़ियाँ चीख़ उठीं यूँ कि जुनूँ जाग उठा हिल गईं आज तो दीवारें भी ज़िंदानों की उन निगाहों की शरारत का ख़ुदा हाफ़िज़ है लूट लें झुक के ज़रा आबरू मैख़ानों की हम ने घबरा के जो आबाद किया है इन को आज रौनक़ है सिवा देख लो वीरानों की ख़ून से लिक्खी गई है ये मोहब्बत की किताब कितनी दिलचस्प इबारत है इन अफ़सानों की अपनी क़िस्मत का भरम रखने को हम तो “ मुमताज़ ” लाश काँधों पे लिए फिरते हैं अरमानों की

अक्स से अपने नज़र अब मैं मिलाऊं कैसे

अक्स   से   अपने   नज़र   अब   मैं   मिलाऊं   कैसे सर   पे   ये   बार   ए निदामत   मैं   उठाऊं   कैसे बोझ   हो   जाता   है   इंसान   को   ख़ुद   अपना   वजूद टूटे   कांधों   पे   ये   अब   बोझ   उठाऊं   कैसे क्या   ख़बर   वक़्त   के   कोहरे   में   छुपा   क्या   होगा अंधी   तक़दीर   पे   सरमाया   लुटाऊं   कैसे भूल   बैठी   है   मेरी   ज़िन्दगी   हंसने   का   हुनर मुस्कराने   का   इसे   ढंग   सिखाऊं   कैसे लिख   तो   दूं   कोई   नई दास्ताँ   दिल   पे   लेकिन नाम   जो   लिक्खा   है   अब   तक   वो   मिटाऊं   कैसे मसलेहत   समझे   कोई   और   न   कोई   बात   सुने ऐसी   ...

इस गरानी से मैं अल्लाह निभाऊं कैसे

इस   गरानी   से   मैं   अल्लाह   निभाऊं   कैसे पेट   की   आतिश   ए   नमरूद   बुझाऊं   कैसे ये   सबक़   सीख   रही   है   अभी   नौख़ेज़   दुल्हन एहल   ए   ससुराल   को   उँगली पे   नचाऊं   कैसे ले   गया   वक़्त   मुआ   साथ   मेरी   बत्तीसी है   जो   बिरयानी   में   बोटी ... वो   चबाऊं कैसे इस   तरह   उठती   है , बर्दाश्त   नहीं   होती   है अब   भरी   बज़्म   में   मैं   पीठ   खुजाऊं   कैसे اس   گرانی   سے   میں   الله   نبھاؤں   کیسے پیٹ   کی   آتش_نمرود   بجھاوں   کیسے یہ   سبق   سیکھ   رہی   ہے   ابھی   نوخیز   دلہن اہل_سسرال   کو   انگلی   پہ   نچاؤں   کیسے لے   گیا   ساتھ ...

कोई तो ऐसा इन्क़लाब आए

कोई तो ऐसा इन्क़लाब आए हर अज़ीयत का अब जवाब आए काम आती हैं ख़ूब आँखें भी बात करने में जब हिजाब आए जाने किस रोग की अलामत है जागती आँखों में भी ख़्वाब आए वो नज़र भर के देख ले जब भी बारहा लौट कर शबाब आए हम ख़िज़ाँ से क़दम मिला के चलें वो बहारों के हमरक़ाब आए चल दिया जब वो फेर कर नज़रें एक लम्हे में सौ अज़ाब आए नश्शा महफ़िल प क्यूँ न तारी हो जब कि साग़र ब कफ़ शराब आए हो गया है अज़ाब जीना भी ऐसे दिन भी कभी ख़राब आए आफ़रीं है हमारी ज़िन्दा दिली आए दिल पर जो अब अज़ाब आए तेरी महफ़िल से ऐ सितम परवर ले के “मुमताज़” इज़्तिराब आए