तरही ग़ज़ल - बहार फिर से खिज़ाओं में आज ढलने लगी
बहार फिर से खिज़ाओं में आज ढलने लगी अभी खिले भी न थे गुल , कि रुत बदलने लगी ये रतजगों का सफ़र जाने कब तलक आख़िर कि अब तो शब की सियाही भी आँख मलने लगी ये बर्फ़ बर्फ़ में चिंगारियां सी कैसी हैं ये सर्द रुत में फिज़ा दिल की क्यूँ पिघलने लगी जो इल्तेफात की बारिश ज़रा हुई थी अभी ये आरज़ू 'ओं की बूढी ज़मीं भी फलने लगी दरून ए जिस्म कोई आफ़ताब है शायद चली वो लू कि तमन्ना की आँख जलने लगी सफ़र का शौक़ जो रक्साँ हुआ , तो यूँ भी हुआ "ज़मीं पे पाँव रखा तो ज़मीन चलने ...