नज़्म - ख़िताब
ऐ मुसलमानो , है तुम से दस्त बस्ता ये ख़िताब दिल पे रख कर हाथ सोचो , फिर मुझे देना जवाब उम्मत ए मुस्लिम की हालत क्यूँ हुई इतनी ख़राब किस लिए अल्लाह ने डाला है हम पर ये अज़ाब कह रहे हैं लोग , बदतर है हमारी ज़िन्दगी पिछड़ी कौमों से भी , बदबख्तों से भी , दलितों से भी सुन के ये सब मन्तकें , इक बात ये दिल में उठी हम में ये बे चेहरगी आख़िर कहाँ से आ गई हम दलीतों से भी नीचे ? अल्लाह अल्लाह , ख़ैर हो हाय ये हालत , कि हम से किबरिया का बैर हो ? तुम वतन में रह के भी अपने वतन से ग़ैर हो अब क़दम कोई , कि अपनी भी तबीअत सैर हो कुछ तो सोचो , ज़हन पे अपने भी कुछ तो ज़ोर दो ग़ैर के हाथों में आख़िर क्यूँ तुम अपनी डोर दो अपनी इस तीर शबी को फिर सुनहरी भोर दो फिर उठो इक बार ऐसे , वक़्त को झकझोर दो ये ज़रा सोचो , कि तुम अपनी जड़ों से क्यूँ कटे मसलकों में क्यूँ जुदा हो , क्यूँ हो फ़िर्क़ों में बँटे अब तअस्सुब को समेटो , कुछ तो ये दूरी पटे यक जहत हो जाएं जो हम , तो ये तारीकी हटे हम फ़रेब ए मसलेहत हर बार खाते आए हैं मुल्क के ये रहनुमा हम को नचाते आए हैं कितने अ...